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________________ 401 गन्ध बनता है। कपूर, कस्तूरी, गोरोचन, सिंगरफ, केशर, चन्दन, अगर, गेहूंला से भी अष्टगन्ध बनाया जाता है । यक्षकईम : चन्दन, केशर, अगर, बरास, कस्तूरी, मरजकंकाल, गोरोचन, हिगुल, रतजन, सुनहरे वर्क और अंबर के मिश्रण से यक्षकर्दम बनता है। अष्टगन्ध और यक्ष कर्दम गुलाब जल के साथ घोटते हैं और इनका उपयोग मंत्र यंत्र तंत्रादि लिखने में, पूजा प्रतिष्ठादि में काम आता है। मषी-स्याही शब्द काले रंग की स्याही का द्योतक होने पर भी हर रंग के साथ इसक वचन प्रयोग-रूढ़ हो गया। लाल स्याही, सुनहरी स्याही, हरी स्याही प्रादि इसा प्रकार बंगाल में लाल काली, ब्लकाली आदि कहते हैं। स्याही और काली शब्द ये हरेक रंग वा की स्वरूप दर्शिका के लिए प्रयुक्त होते हैं। चित्रकला के रंग : सचित्र पुस्तक लेखन में चित्र बनाने के लिए ऊपर लिखित काले, लाल, सनतो रूपहले रंगों के अतिरिक्त हरताल और सफेदा का भी उपयोग होता था। दया भी विधि है। हरताल और हिगुल मिलाने पर नारंगी रंग, हिंगुल और सफेदा मिलाने गलाबी रंग, हरताल और काली स्याही मिल कर नीला रंग बनता था। (1) सफेदा 4 टांक व पेवड़ो 1 टांक व सिंदूर || टोक से गौर वर्ण । (2) सिदर 4 टांक व पोथी गली 1 टांक से खारिक रग । (3) हरनाल 1 टांक व गली प्राधा टांक से नीला रंग । (4) सफेदा 1 टांक व अलता प्राधा टांक से गलाबी रंग। (5) सफेदा 1 टांक व गली 1 टांक से पासमानी रंग । (6) सिंदर 1 टांक व पवडी प्राधा टांकरा नारंगा रंग होता है। हस्तलिखित ग्रन्थ पर चित्र बनाने के लिए इन रगो के साथ गाद का स्वच्छ जल मिला जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न चित्रकला के याग्य रंगों के निर्माण की विधि प्रयोग पुराने पत्रों में लिख पाये जाते है। जैन लिपि की परम्परा भगवान महावीर का विहार अधिकाश विहार प्रान्त (अग-मगध-faia बंगाल और उत्तर प्रदेश महा था। अत: व अद्धमागधी भाषा में उपदेश देते का सम्बन्ध मगध से अधिक था। जैनागमों की भाषा प्राकृत है, दिगम्बर साहित्य सौरसेनी प्राकृत में और श्वेताम्बर अागम महाराष्ट्री प्राकृत म है। जिस प्रकार अन्य भाri पाक से अपभ्रंश के माध्यम स हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि हुई, इसी प्रकार बंगला नाषा और लिपि का उदगम प्राकृतरा हा है। मगध से पड़ी मात्रा का प्रयोग बंगला में गया। जब पाय लेनोन श्रमण संघ दक्षिण और पश्चिम देशों में चला गया, परन्तु अपनी लिपि गत कटिल और देवनागरी के विकास मब्राह्मी-देवनागरी मनाही-बगला का प्रभाव नेता गा| गटी कारण है कि सेकडो वर्षों तक पड़ी मात्रा का जनों में प्रचलन रहा। बंगला
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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