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इतनी लम्बी अवधि में श्रागमों के स्वरूप में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । दिगम्बद सम्प्रदाय ने इस परिवर्तन को देखकर ही सम्भवतः इन प्रागमों को "लुप्त" कह दिया पर श्वेताम्बर परम्परा में वे अब भी सुरक्षित हैं ।
यहां हम सुविधा की दृष्टि से प्राकृत जैन साहित्य को निम्न भागों में विभक्त कर सकते
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श्रागम साहित्य
आगमिक व्याख्या साहित्य
3. कर्म साहित्य
4. सिद्धान्त साहित्य
आचार साहित्य
6. विधिविधान और भक्ति साहित्य
7. पौराणिक और ऐतिहासिक साहित्य
कथा साहित्य
9. लाक्षणिक साहित्य
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1. आगम साहित्य
प्राकृत जैनागम साहित्य की दो परम्पराओं से हम परिचित ही हैं । दिगम्बर न तो उसे लुप्त मानती है परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में उसे अंग, उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र और प्रकीर्णक के रूप में विभक्त किया गया है । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :--
क. अंग साहित्य :-- प्रंग साहित्य के पूर्वोक्त बारह भेद हैं
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यात्रासंग : यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 'सत्य परिण्णा' आदि नव अध्ययन हैं और द्वितीय स्कन्ध में पांच । द्वितीय श्रुतस्कन्ध चूलिका के रूप में लिखा गया है जिनकी संख्या पांच है। चार चूलिकायें आचारांग में और पंचम विस्तृत होने कारण पृथक् रूप में निशीथ सूत्र के नाम से निबद्ध है । यह भाग प्रथम् श्रुतस्कन्ध के उत्तरकाल का है। इस ग्रन्थ में गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है । इसमें मुनियों के आचार-विचार का विशेष वर्णन है। महावीर की चर्या का भी विस्तृत उल्लेख हुआ है।
2. सूयगडांग : - इसमें स्वसमय और परसमय का विवेचन है। इसे दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त किया गया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 16 अध्ययन है-- समय, वैयालिय