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________________ उपसर्ग, स्त्रीपरिज्ञा, नरक विभक्ति, वीरस्तव, कुशील, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवशरण, याथातथ्य, ग्रन्थ पादान, गाथा और ब्राह्मण श्रमण निर्ग्रन्थ । द्वितीय धृतर कन्ध में सात अध्ययन हैं-पुण्डरीक, क्रियास्थान, आहारपरिज्ञा, प्रत्याख्यान क्रिया, अचारश्रुत, अर्द्धकीय तथा नालन्दीय । प्रथम श्रुतस्कन्ध के विषय को ही यहां विस्तार से कहा गया है। अतः नियुक्तिकार ने इसे “महा अध्ययन" की संज्ञा दी है। इस अंग में मलतः क्रियावाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि मतों का प्रस्थापन और उसका खण्डन किया गया है। 3. ठाणांग :--इसमें दस अध्ययन है और 783 सूत्र है जिनमें अंगुत्तरनिकाय के समान एक से लेकर दस संख्या तक संख्याक्रम के अनुसार जैन सिद्धान्त पर आधारित वस्तु संख्याओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है। यहां भगवान महावीर की उत्तरकालीन परम्पराओं को भी स्थान मिला है। जैसे नवें अध्ययन के तृतीय उद्देशक में महावीर के 9 गुणों का उल्लेख है। सात निन्ड्वों का भी उल्लेख है--जमालि, तिष्यगप्त, आषाढ, अश्वमित्र, गग, रोहगुप्त और गोष्ठमाहिल। इनमें प्रथम दो के अतिरिक्त सभी निन्हवों की उत्पत्ति महावीर के बाद ही हई। प्रव्रज्या, स्थविर, लेखन-पद्धति प्रादि से संबद्ध सामग्री की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। 4. समवायांग:--इसमें कुल 275 सत्र है जिनमें ठाणांग के समान संख्या-क्रम से निश्चित वस्तुओं का निरूपण किया गया है। यद्यपि कोई क्रम तो नहीं पर उसी का प्राधार लेकर संख्या-क्रम सहन. दश सहस्र और कोटा-कोटि तक पहुंचा है। ठाणांग क समान यहां भी महावीर के बाद की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। उदाहरणतः 100 वें सत्र में गणधर इन्द्रभूति और सूधर्मा के निर्माण से संबद्ध घटना। ठाणांग और समवायांग की एक विशिष्ट शैली है जिसके कारण इनके प्रकरणों में एक सत्रता के स्थान पर विषय-वैविध्य अधिक दिखाई देता है। इसमें भौगोलिक और सांस्कृतिक सामग्री भरी हुई है। 5. विवाहपण्णत्ति:--ग्रन्थ की विशालता और उपयोगिता के कारण इसे भगवतीसूत्र भी कहा जाता है। इसमें गणधर गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर निबद्ध है । अधिकांश प्रश्न स्वर्ग, नरक, चन्द्र, सूर्य, आदि से सम्बद्ध है । इसमें 41 शतक हैं जिनमें 837 सूत्र है। प्रथम शतक अधिक महत्वपूर्ण है। आगे के शतक इसी की व्याख्या करते हुए दिखाई देते हैं। यहां मक्खली गौसाल का विस्तृत चरित्र भी मिलता है । बुद्ध को छोडकर पार्श्वनाथ पौर महावीर के समकालीन आचार्य और परिव्राजक, पार्श्वनाथ और महावीर का परम्पराभेद, स्वप्नप्रकार, जवणिज (यापनीय) संघ और वैशाली में हुए दो महायुद्ध, वनस्पतिशास्त्र, जीव प्रकार प्रादि के विषय में यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण जानकारी देता है। इसमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित नन्दिसत्र का भी उल्लेख है जिससे स्पष्ट है कि इस महाग्रन्थ में महावीर के बाद की सगभग एक हजार वर्ष की प्राचीन परम्पराओं का संकलन है । नायाधम्मकहानो :-इसमें भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट लोकप्रचलित धमंकथाओं का निबन्धन है जिसमें संयम, तप, त्याग प्रादि का महत्व बताया गया है। इस ग्रन्थ में दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में नीति-कथाओं से संबद्ध उन्नीस अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में धर्मकथायें संकलित हैं। शैली रोचक और प्राकर्षक है। इसमें मेघकुमार, धन्ना और विजय चोर, सागरदत्त और जिनदत्त, कच्छप और श्रृगाल, शैलक मुनि और शुक परिव्राजक, तुंब रोहिणी, मल्ली, भाकंदी, दुर्दर, अमात्य तमलि, द्रोपदी, पुण्डरीक कुण्डरीक, गजसुकुमाल, नंदमणियार आदि की कथायें संकलित है। ये कथायें घटना प्रधान तथा नाटकीय तत्वों से प्रापूर है । सांस्कृतिक महत्व की सामग्री भी इसमें सन्निहित है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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