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उत्तरकाल में यह साहित्य दो परम्पराओं में विभक्त हो गया-~ दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा । दिगम्बर परम्परा के अनुसार प्रागम साहित्य दो प्रकार का है--अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंग-प्रविष्ट में बारह ग्रन्थों का समावेश है-पाचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृद्दशांग, अनुत्तरोपपातिक दशांग, प्रश्नव्याकरण और दष्टिवाद । दृष्टिवाद के पांच भेद किये गये हैं--परिकर्म, सूत्र,प्रथमानुयोग, पूर्वगत मोर चलिका । पूर्वगत केही उत्पाद आदि पूर्वोक्त चौदह भेद है। इन अंगों के आधार पर रचित ग्रन्थ अंगबाह्य कहलाते हैं जिनकी संख्या चौदह है--सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवं कालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका। दिगम्बर परम्परा इन अंगप्रविष्ट पौर अंगबाह्य ग्रन्थों को विलुप्त हुआ मानती है। उसके अनुसार भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के 162 वर्ष पश्चात् अंग ग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लग। मात्र दृष्टिवाद के अन्तर्गत आये द्वितीय पूर्व अग्रायणी के कुछ अधिकारों का ज्ञान प्राचार्यधर सेन के पास शेष था जिसे उन्होंने प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को दिया। उसी के आधार पर उन्होंने षटखण्डागम जैसे विशालकाय ग्रन्थ का निर्माण किया। श्वेताम्बर परम्परा में ये अंगप्रविष्ट और अग बाह्य ग्रन्थ अभी भी उपलब्ध है। अंगबाह्य ग्रन्थों के सामायिक आदि प्रथम छह ग्रन्थों का अन्तर्भाव आवश्यक सूत्र में एवं कल्प, व्यवहार और निशीथ आदि सूत्रों में हो गया।
मंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों के आधार पर जो ग्रन्थ लिखे गय उन्हें चार विभागों में विभाजित किया गया है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानु योग और चरणानुयोग । प्रथमानुयोग में ऐसे ग्रन्थों का समावेश होता है जिसमें पुराणों, चरितों और प्राख्यायिकामों के माध्यम से सैद्धान्तिक तत्व प्रस्तुत किये जाते हैं। करणानुयोग में ज्योतिष और गणित के साथ ही लोकों, सागरों, द्वीपों, पर्वतों, नदियों आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है । सर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ इस विभाग के अन्तर्गत पाते हैं। जिन ग्रन्थों में जीव, कर्म, नय, स्याद्वाद आदि दार्शनिक सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है वे द्रव्यानयोग की सीमा में आते हैं। ऐसे ग्रन्थों में षट्खण्डागम, प्रवचनसार,पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों का समावेश होता है। चरणानुयोग में मुनियों और गृहस्थों के नियमोपनियमों का विधान रहता है। कन्दकुन्दाचार्य के नियमसार, रयणसार, वट्टकर का मलाचार, शिवार्य की भगवती माराधना पादि ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
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सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता नियुक्तिकार भद्रबाहु से भिन्न प्राचार्य भद्रबाहु थे जिन्हें श्रुत केवली कहा गया है। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के लगभग 150 वर्ष बाद तित्थोगालीपइन्ना के अनुसार उत्तर भारत में एक द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा जिसके परिणाम स्वरूप संघ भेद का सूत्रपात
ल में अस्तव्यस्त हए श्रुतज्ञान को व्यवस्थित करने के लिए थोडे समय बाद ही पाटली-पुत्र में एक संगीति अथवा वाचना हुई जिसमें ग्यारह अंगों को व्यवस्थित किया जा सका। बारहवें अंग ग दृष्टिवाद के ज्ञाता मात्र भद्रबाहु थे जो बारह वर्ष की महाप्राण नामक योगसाधना के लिये नेपाल चले गये थे। संघ की ओर से उसके अध्ययन के लिये कुछ साधनों को उनके पास भेजा गया जिनमें स्थूलभद्र ही सक्षम ग्राहक सिद्ध हो सके। वे मात्र दश पूर्वो का साथ अध्ययन कर सके और शेष चार पूर्व मूलमान उन्हें (वाचनाभद से) मिल सके, प्रर्थतः नहीं। धीरे-धीरे काल-प्रभाव से दशपूर्वो का भी लोप होता गया। अन्त में भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के लगभग 1000 (980) वर्ष बाद बलभी में प्राचाय देवधिगणि क्षमाश्रमण क नतत्व में परिषद् की संयोजना हई जिसमें उपलब्ध-पागमों को लिपिबद्ध कर स्थिर किया गया। प्राज जो प्राकृत आगम उपलब्ध हैं व इसी याचना के परिणाम है।