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________________ प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण : 1 डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर प्रत्येक भाषा और साहित्य संस्कृति की निर्माण-प्रक्रिया के विविध रूप संन्निहित रहते हैं। ये रूप कुछ तो परम्परागत होते है और कुछ समय के साथ परिवर्तित होते चले जाते हैं। प्राकृत भाषा और साहित्य भी इस तथ्य से बाहर नहीं गया। वह भी समय की सूक्ष्म गति के साथ प्रवाहित होता रहा और जनसाहित्य तथा जनमानस को प्रभावित करता रहा। संकीर्णता के दायरे से हटकर व्यापक और निमुक्त क्षेत्र में ही वह सदव कार्यरत यह लिखना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्राकृत मूलतः जनभाषा रही है और म. महावीर ने उसो का अपने सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया था। ये सिद्धान्त जब लिपिबद्ध होने लगे तब तक स्वभावतः भाषा के प्रवाह में कुछ मोड़ पाये और संकलित साहित्य उससे अप्रभावित नहीं रह सका। समकालीन अथवा उत्तरकालीन घटनाओं के समावेश में भी कोई एकमत नहीं हो सका । किसी ने सहमति दी और कोई उसकी स्थिति से सहमत नहीं हो सका। फलतः पाठान्तरों और मतमतान्तरों का जन्म हुआ। भाषा और सिद्धान्तों के विकास की यही अमिट कहानी है। समूचे प्राकृत साहित्य का सर्वेक्षण करने पर यह तथ्य और कथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत भाषा के कतिपय तत्व यद्यपि वैदिक और वैदिकोतर साहित्य में उपलब्ध होते हैं पर उसका साहित्य लगभग 2500 वर्ष प्राचीन हो माना जा सकता है। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के पहले विद्यमान प्रागमिक साहित्य-परम्परा का उल्लेख 'पूर्व' शब्द से अवश्य हया है पर ग्राज वह साहित्य-परम्परा उपलब्ध नहीं है। फिर भी इसी परम्परा से वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य की उत्पत्ति मानी जा सकती है। प्राकृत भाषा का अधिकांश साहित्य जैन धर्म और संस्कृति से संबद्ध है। उसकी मूल परम्परा श्रुत अथवा आगम के नाम से व्यवहृत हुई है और एक लम्बे समय तक श्रुति-परम्परा के माध्यम से सुरक्षित रही। संगीतियों अथवा वाचनाओं के माध्यम से यद्यपि इस आगमपरम्परा का संकलन किया जाता रहा है पर समय और आवश्यकता के अनुसार चिन्तन के प्रवाह को रोका नहीं जा सका। फलत: उसमें हीनाधिकता होती रही। प्राकृत जन साहित्य के सन्दर्भ में जब हम विचार करते हैं तो हमारा ध्यान जैन धर्म क प्राचीन इतिहास की ओर चला जाता है जो वैदिक काल किंवा उससे भी प्राचीनतर माना जा सकता है। उस काल के प्राकृत जैन साहित्य को “पूर्व" संज्ञा से अभिहित किया गया है जिसकी संख्या चौदह है-उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद,प्रात्मप्रवाद, कर्मप्रवाद,प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। आज जो साहित्य उपलब्ध है वह भगवान् महावीर रूपी हिमाचल से निकली वागगंगा है जिसमें अवगाहनकर गणधरों और प्राचार्यों ने विविध प्रकार के साहित्य की रचना की।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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