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________________ 310 जो कोंपल और कुल्हाड़ी को साथ लेकर चल सकता है, उसे ही रजकण और हीरकहार तुल्य मूल्य के प्रतीत हो सकते हैं। मनीषी कवि की दष्टि 'मैं' और 'तुम' की संकीर्ण सीमाओं का अतिक्रमण कर मानवीय अस्तित्व की चरम सार्थकता पर केन्द्रित है। परन्तु, इस चरमानुभूति के अन्तराल से यदा-कदा विचार के अनेक छोटे-बड़े कण झांकते हए प्रतीत होते हैं, जो जीवन का एक नई मूल्य-मीमांसा प्रस्तुत करते है:-- फूल को चाहिए कि वह कली को स्थान दे कली को चाहिए कि वह फूल को सम्मान दे पतझड़ को रोका नहीं जा सकता कोंपल को टोका नहीं जा सकता। मुनिश्री बद्धमलजी दीर्घकाल से काव्य की सफल साधना करते रहे हैं। वे भावुक हैं, परन्तु उनकी भावकता में भी चितन का उन्मेष है। उनके स्वर की कोमलता जीवन की कठोरता के 'चैलेन्ज' को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाती। भावाभिव्यक्त की चारुता के लिए उन्होंने सजग प्रयास नहीं किया है, परन्तु उनकी कविताओं का कला-पक्ष भी पर्याप्त परिपुष्ट है। मुनिश्री की कविताओं का प्रथम संकलन 'मन्थन' नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसकी भूमिका यशस्वी कवि स्व. रामधारीसिंह 'दिनकर' ने लिखी थी। द्वितीय संकलन 'मावर्त' है, जिसमें अापके भावचक्र की अनेक गति-भंगिमाओं को लक्षित किया जा सकता है। आपकी जीवनदष्टि व्यष्टि और समष्टि के समन्वय पर अाधारित है। अपनी काव्य-साधना के सम्बन्ध में आपने लिखा है 'मुझे न केवल अपना ही सुख-दुःख इस ओर प्रेरित करता रहा है, अपितु, दूसरों का सुखदुःख भी मेरी अनुभति के क्षेत्र में आता रहा है, आपकी रचनाओं में अद्वैतमूलक दार्शनिक चिन्तन भी है, परन्तु सूलत: ग्राप पौरुष के कवि है। संकल्प का सबल स्वर आपकी कविताओं को विशिष्टता प्रदान करता है: मैं रुकं प्रतीक्षा को, इससे तो अच्छा है तुम अपनी ही गति के क्रम में त्वरता भरलो। मैं तो बीहड़ में भी एकाकी चल लूंगा तुम साथ चलो, न चलो, अपना निर्णय करलो । मनिश्री नगराजजी का योगदान गद्य साहित्य को अधिक है। परन्तु आपने कतिपय मामिक कवितारों का भी सर्जन किया है। आपकी कविताओं में साधक के लिए उद्बोधन है, प्रतिकूलताओं के साथ संघर्ष करते हुए निरंतर प्रागे बढ़ते रहने की प्रवल प्रेरणा है। परन्तु, मुनिश्री की कुछ ऐसी भी रचनाएं हैं, जिनमें युग-भावना के अनुरूप न्याय की पुकार को प्रतिध्वनित किया गया है। इन पंक्तियों में यग-मानव का पाहत अभिमान ही नहीं, उसकी न्याय की मांग भी गूजती हुई सुनाई पड़ती है: रहने दो बस दान तुम्हारा रहने दो सम्मान तुम्हारा । ग्राज मुझे तो न्याय चाहिए अपने श्रम की आय चाहिए।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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