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________________ राजस्थानी साहित्य का सामान्य परिचय (पृष्ठभूमि) 1 --डा. हीरालाल माहेश्वरी -:1: अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की भांति राजस्थानी का विकास भी तत्कालीन गुजरात और राजस्थान में लोक प्रचलित अपभ्रंश से हुया है। विक्रम 5वीं से 12वीं शताब्दी अपभ्रंश का समृद्ध काल है । प्राचार्य हेमचन्द्र (संवत् 1145-1229) को अपभ्रंश की ऊपरी सीमा स्वीकार किया जा सकता है। यद्यपि अपभ्रंश की रचनायें उनके बाद भी लगभग चार शताब्दियों तक होती रहीं, तथापि देशी भाषाओं के आविर्भाव और प्रचलन के संदर्भ में, उसका प्रयोग परम्परा का पालन ही कहा जायेगा। प्राप्त अपभ्रंश साहित्य के आधार पर उसको तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है:--1. पश्चिमी, 2. उत्तरी और 3. पूर्वी। ये भेद अपभ्रंश के एक प्रचलित सामान्य रूप में स्थानीय भाषाओं की विशेषताओं के समावेश के कारण हैं। उसका एक सामान्य रूप था जिसका मूलाधार शोरसैनी अपभ्रंश या पश्चिमी अपभ्रंश था। 9वीं से 12वीं शताब्दी के बीच यह पश्चिमी अपभ्रंश पूरे उत्तरी और पूर्वी भारत में साहित्यिक भाषा के रूप में समाद्दत हो चुकी थी। इसके दो प्रधान कारण थे:--1. राजपूतों का उत्थान और इन राजाओं द्वारा उत्तरकालीन शोरसैनी अपभ्रंश तथा इससे मिलती जुलती बोली को अपनाना एवं प्रश्रय देना। 2. इसका शैव, जैन और वज्रयान बौद्धसिद्धों में एक धार्मिक भाषा के रूप में मान्य होना। हाना। सर्वाधिक साहित्य पश्चिमी अपभ्रंश में ही पाया जाता है तथा प्राप्त अपभ्रंश साहित्य में सबसे अधिक रचनायें जैन कवियों की हैं। सनत्कुमार चरिउ, हेमचन्द्र द्वारा संग्रहीत दोहे. कुमारपाल प्रतिबोध में प्राप्त अपभ्रंश पद्यों आदि को विद्वानों ने गुर्जर अपभ्रंश कहा है और गुर्जर अपभ्रंश में पश्चिमी अपभ्रंश की सभी विशेषतायें प्राप्त होती हैं--'मारू-गुर्जर' या पुरानी राजस्थानी का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ है। इस प्रकार, 'मारू-गुर्जर' और उसके साहित्य में गुर्जरी अपभ्रंश और उसके साहित्य की सर्वाधिक विशेषतायें और परम्परायें सुरक्षित हैं। उसके काव्य रूप, कथ्य और शैली तथा साहित्यिक धारायें, कतिपय कालज और देशज विशेषताओं के साथ 'मारू-गुर्जर' के साहित्य में निर्विच्छिन्न रूप से मिलती हैं। अत: पुरानी राजस्थानी और उसके साहित्य के सम्यकरूपेण अध्ययन के लिये पश्चिमी अपभ्रंश, विशेषतः गुर्जरी अपभ्रंश का अध्ययन अतीव आवश्यक है। पुरानी राजस्थानी में भी सर्वाधिक रचनायें जैन कवियों की हैं। लगभग संवत 1100 से आगे चार शताब्दियों तक के साहित्य को 'मारू-गर्जर' या पुरानी राजस्थानी का साहित्य कहा जा सकता है। राजस्थानी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है:1. विकास काल (विक्रम संसवत् 1100 से 1500) ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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