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________________ 164 2. मध्य काल क -- विकसित काल ( संवत् 1500 से 1650) | ख -- विर्वाद्धत काल (संवत् 1650 से 1900 ) । 3. अर्वाचीन काल ( संवत् 1900 से वर्तमान समय तक ) । इस विभाजन के औचित्य के संबंध में साहित्यिक, भाषिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक --- राजनैतिक अनेक कारण बताये जा सकते हैं । भाषा की दृष्टि से विकास काल का साहित्य 'मारू गुर्जर' का साहित्य है । इसके 'पुरानी राजस्थानी', 'पुरानी पश्चिमी राजस्थानी', 'जूनी गुजराती', 'मारू-सौरठ' श्रादि नाम भी दिये गये हैं; पर सर्वाधिक उचित नाम 'मारू गुर्जर' ही है। इससे तत्कालीन गुजरात और राजस्थान - मरप्रदेश की भाषाओं का सामूहिक रूप से बोध होता है । उल्लेखनीय है कि विक्रम 15वीं शताब्दी तक पुरानी गुजराती और पुरानी राजस्थानी एक ही थी । 1500 के लगभग दोनों पृथक पृथक् हुई । इसलिये 'मारू गुर्जर' का साहित्य गुजराती और राजस्थानी दोनों का साहित्य है; दोनों का उस पर समान अधिकार है । यही कारण है कि इन 400 सालों में रचित साहित्य की चर्चा गुजराती और राजस्थानी साहित्य के इतिहासों में समान रूप से होती है । यद्यपि भाषिक दृष्टि से संवत् 1500 तक गुजराती और राजस्थानी अलग-अलग गई थीं ; तथापि सांस्कृतिक और कुछेक अंशों तक साहित्यिक परम्पराओं की दृष्टि से, उसके पश्चात् भी दोनों में काफी समानतायें मिलती हैं । इस संबंध में डा० सीटरी की डिंगल विषयक धारणा की श्रमान्यता का उल्लेख भी आवश्यक है क्योंकि अभी भी राजस्थानी के कुछ विद्वान उसको सत्य और प्रमाणिक मानते हैं; यही नहीं उन्होंने राठोड़ पृथ्वीराज कृत 'वेली', 'ढोलामारू' आदि रचनाओं के पाठों में शब्दरूप भी उसी के अनुसार रखे हैं । जब कि संबंधित महत्वपूर्ण प्राचीन प्रतियों में ऐसे रूप उपलब्ध नहीं होते । इससे राजस्थानी के विकास संबंधी गलत धारणा को प्रश्रय मिलता है । डा० सीटरी ने डिंगल के दो रूप माने हैं:--1. प्राचीन डिंगल और 2. अर्वाचीन डिंगल । उन्होंने ईसा की 13वीं शती से 16वीं शती के अन्त तक की डिंगल को प्राचीन डिंगल और ईसा की 17वीं शती के प्रारम्भ से आज तक की डिंगल को प्रर्वाचीन डिंगल बताया है । उनके अनुसार इन दोनों में मुख्य भेद यह है कि प्राचीन डिंगल में जहां 'आई' और 'अउ' का प्रयोग होता है, वहां अर्वाचीन डिंगल में उनके स्थान पर क्रमशः 'ऐ' और 'श्री' का । उनकी यह धारणा नितान्त निराधार है, जिसकी सप्रमाण पुष्टि प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने अन्यत्र की है; साथ ही यह स्थापना भी कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों तक 'पुरानी राजस्थानी' या 'मारू गुर्जर' अपना पुराना स्वरूप छोड़ कर नया रूप ग्रहण कर चुकी थी । प्राचीन 'ई', 'उ' के स्थान पर नवीन रूप 'ऐ', 'श्री' इस शताब्दी में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो चुके थे । विकास का यह क्रम धीरे-धीरे प्राया । 1 'डिंगल' की व्युत्पत्ति, अर्थ आदि के विषय में विभिन्न मत प्रकट किये गये हैं । 'डिंगल' को भाषा भी माना गया है और शैली भी । भाषा मानने वालों में भी मतैक्य नहीं है, किन्तु उन सबकी चर्चा यहां न कर इतना कहना ही पर्याप्त समझता हूं कि 'डिंगल' मरुभाषा या राजस्थानी का ही पर्याय है; चाहे वह साहित्यिक या बोलचाल की । राजस्थानी के छन्दशास्त्रीय तरह से भी इसकी पुष्टि की जा सकती है कि डिंगल थों से इसकी पुष्टि होती है । एक और में लिखने वालों ने उसको क्या समझा है । दो उदाहरण पर्याप्त होंगे । 1. पदम भगत ने संवत् 1545 के लगभग 'रुक्मणी मंगल' या 'हरजी रो ब्यावलो ' नामक लोककाव्य लिखा था । यह राजस्थानी के प्राचीनतम प्राख्यान काव्यों में एक है। कहने
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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