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की आवश्यकता नहीं कि इसकी भाषा बोलचाल की मरुभाषा है। इसकी प्राचीनतम उपलब्ध प्रति संवत् 1669 की लिपिबद्ध है। इसमें तो नहीं पर इसके पश्चात् की लिपिबद्ध बहुत सी प्रतियों में रचना के पुष्पिका स्वरूप यह दोहा मिलता है
कविता मोरी डींगली. नहीं व्याकरण ग्यान । छन्द प्रबन्ध कविता नहीं, केवल हर को ध्यान ।।
यह दोहा मूल का नहीं प्रतीत होता है तथापि इतना तो स्पष्ट ही है कि इसको लिखने या रचने वाला 'व्यांवले' को 'डींगली कविता' समझता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने संवत् 1669 वाली प्रति का पाठ छपवाया है। उसमें संवत 1891 की लिखी हुई एक अन्य प्रति का कुछ अतिरिक्त अंश भी दिया गया है। जिसमें उल्लिखित दोहा भी है। तात्पर्य यह है कि बोलचाल की राजस्थानी का भी दूसरा नाम 'डिंगल है।
2. चारण स्वरूपदासजी दादूपंथी ( समय-संवत् 1860-1900/1925) का 'पाण्डवयशेन्दु चन्द्रिका' काव्य प्रसिद्ध है। इसमें 16 अध्यायों में महाभारत की कथा का सारांश है। इसकी भाषा बहत ही सरल पिंगल है। इसकी भाषा के संबंध में स्वयं कलिका कथन यह है
पिंगल डिंगल संस्कृत, सब समझन के काज ।
मिश्रित सी भाषा करी, क्षमा करहु कविराज । अर्थात् (1) डिंगल भाषा है और वह (2) 'सब समझन के काज' स्वरूप भाषा है। सबके समझने लायक भाषा तो बोलचाल की ही हो सकती है। अतः बोलचाल की मरुभाषा की गणना डिंगल के अन्तर्गत है।
इस प्रकार की अनेक उक्तियों के प्राधार पर यह कहा जा सकता है कि मरुभाषा या राजस्थानी और डिंगल एक ही है।
राजस्थानी साहित्य को निम्नलिखित रूपों में विभाजित कर सकते हैं:1. जैन साहित्य, 2. चारण साहित्य,
लौकिक साहित्य, संतमक्ति साहित्य,
तथा 5. गद्य साहित्य।
प्रथम चार प्रकार की रचनाओं में प्रत्येक की एक विशिष्ट शैली लक्षित होती है, अतः प्रत्येक को उस शैली का साहित्य भी कहा जा सकता है।
भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के कुछ पश्चात् और सन् 1857 (संवत् 1914) के स्वतन्त्रता-संग्राम से भी पूर्व, त्वरा से बदलती परिस्थितियों के कारण राजस्थानी कविता का स्वर भी बदलने लगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान (अजमेर-मेरवाड़ा को छोड़ कर) सीधा अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत नहीं आया। यहां की विभिन्न रियासतों में वहां के परम्परागत नरेशों का ही राज्य रहा। यद्यपि अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता के कारण उनका प्रभुत्व सीमित हो गया था तथापि अपने-अपने अनेकशः आन्तरिक मामलों में वे स्वतन्त्र थे। अधिकांश जनता 1857 के बाद भी राजाओं के प्रति स्वामिभक्त और राजभक्त बनी रही। कालान्तर