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________________ 166 में जब देश के अन्यान्य भागों में स्वराज्य और स्वतन्त्रता की आवाज उठने लगी, तो उसकी प्रतिध्वनि शनैः शनै: राजस्थान में भी सुनाई देने लगी। इस प्रकार अर्वाचीन काल में परम्परागत काव्य-धारायें तथा नवीन भावनायें और विचार साथ-साथ मिलते हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् देश में अन्यत्न जिन भावों और विचारों की परम्परायें चलीं. उनके प्रवाह में कम-बेशी रूप में कुछ अंशों तक स्थानीय रंगत के साथ राजस्थानी साहित्य मी प्रवाहित हुआ। परन्तु अनक कारणों से इसकी गति अपेक्षाकृत बहत मन्द रही है। यहां राजस्थानी साहित्य का केवल स्थूल दिग्दर्शन ही कराया जा सकता है। राजस्थानी साहित्य के इतिहास में प्राचीनता. प्रवाह नैरन्तर्य, प्रामाणिकता तथा रचना पौर रूप विविधता की दष्टि से जैन साहित्य का महत्व सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी इन दृष्टियों से हिन्दी जैन साहित्य का विशेष महत्व है किन्तु उसकी स्वीकृति और यथोचित मूल्यांकन अभी किया जाना बाकी है। जैन साहित्य की प्रेरणा का मूल केन्द्र धर्म है और उसका मुख्य स्वर धार्मिक है । रस की दृष्टि से यह साहित्य मुख्यतः शान्तरस प्रधान है। राजस्थानी में चरित और कथानों से संबंधित प्रभूत साहित्य का निर्माण हुआ। कथाकाव्यों में विविध प्रकार के वर्णित पापों के दुष्परिणाम, पुण्य के प्रसाद तथा धर्म पालन की महत्ता जान कर जन साधारण सहज ही धर्मोन्मख होता है और तदनुकूल धर्मपालन में कटिबद्ध होता है। जैन धर्म मुलतः आध्यात्मिक है। जैन मनियों का उद्देश्य व्यक्ति को धर्म प्रेरणा देना और उसको धर्मोन्मुख करना था। 'मारू-गुर्जर' के विकास-चिन्ह 11वीं शताब्दी से दो प्रकार की अपभ्रंश रचनात्रों में मिलने लगते हैं--एक तो कवि-विशेष द्वारा रचित रचनाओं में और दूसरे जैन प्रबन्ध ग्रन्थों में उपलब्ध अपभ्रंश पद्यों में। पहले प्रकार के अन्तर्गत कवि धनपाल क्रत 15 पद्यों की छोटी सी रचना 'सच्चउरिय महावीर उत्साह तथा अन्य ऐसी कृतियों की गणना है। दूसरे के अन्तर्गत (1) प्रभावक चरित, (2) प्रबन्ध चिन्तामणि, (3) प्रबन्धकोष, (4) पुरातन प्रबन्ध 'संग्रह' (5) कुमारपाल प्रतिबोध, (6) उपदेश सप्तति आदि ग्रन्थों में प्राये पद्य पाते हैं। इन प्रबन्ध ग्रन्थों में कालक्रम की दष्टि से प्राचार्य वद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर के प्रबन्ध में उद्धत अपभ्रंश और 'मारू-गुर्जर' के पद्यों को अपेक्षाकृत प्राचीन माना गया है। इनमें चारणों के कहे हुये पद्य भी उपलब्ध हैं जो 12वीं से 14वीं शताब्दी तक के हैं। इस काल में दोहा और छप्पय (कवित्त)-दो छन्द बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। छप्पयों में बप्पभट्टसूरि प्रबन्ध में उद्धृत छप्पय तथा वादिदेवसूरि संबंधित छप्पय (समय लगभग 12वीं शताब्दी) सर्वाधिक प्राचीन है। 12वीं शताब्दी की रचनाओं में 'मारू-गुर्जर' का रूप और अधिक खुल कर सामने प्राने लगता है तथा उत्तरोत्तर अपभ्रंश का प्रभाव कम होता चलता है। इस शताब्दी की रचनाओं में पल्ल कवि कृत 'जिनदत्तसरि स्तति' और उनकी स्तति रूप रचनामों की गणना है। दोनों शताब्दियों की रचनाओं में अपभ्रंश का प्राधान्य है। 13वीं शताब्दी में और अधिक तथा अपेक्षाकृत बड़ी रचनायें मिलने लगती हैं। इनमें ये मुख्य हैं:--बज्रसेनसूरि द्वारा संवत् 1225 के आसपास रचित भरतेश्वर बाहुबलि घोर, शालिभद्रसूरि कृत भरतेश्वर बाहुबलि रास (संवत् 1241), बुद्धिरास, आसिगुरचित जीवदया
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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