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रास ( संवत् 1257), चन्दनबाला रास, नेमिचन्द्र भण्डारी कृत गुरु-गुणवर्णन, देल्इप कृत गयसुकुमार रास, धर्मकृत जम्बूस्वामिरास, स्थूलभद्ररास, सुभद्रासती चतुष्पदिका, जिनपतिसूरि बधावणागीत और जिनपितसूरिजी से संबंधित श्रावक कवि रयण और भत्तु रचित रचनायें; पाहण कृत आबूरास, रेवंतगिरिरास, जगडू रचित सम्यक्त्व माई चौपाई, पृथ्वीचन्द्र कृत रस विलास, अभय देवसूरि रचित जयंत विजय काव्य श्रादि आदि । इनका महत्व साहित्यिक दृष्टि से उतना नहीं है जितना प्राचीनता और भाषिक दृष्टि से है । इन दो शताब्दियों ( 12वीं 13वीं) की रचनाओं में कुछ की भाषा अपभ्रंश है जिसमें 'मारू गुर्जर' का भी यत्किचित पुट है तथा - कुछ की भाषा अपभ्रंश प्रभावित 'मारू गुर्जर' है ।
14वीं शताब्दी से तो अनेकानेक रचनायें मिलती हैं जिनका नामोल्लेख भी यहां संभव नहीं है । 15 वीं शताब्दी में पौराणिक प्रसंगों के अतिरिक्त लोककथाओं को लेकर भी भाषाकाव्य लिखे जाने लगे । विकास काल की जैन रचनाओं के लिये गुर्जर रासावली, प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ, जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, प्राचीन फागु संग्रह, पन्द्रमां शतकना प्राचीन गुर्जर काव्य, रास और रासान्वयी काव्य, पन्द्रमां शतकना चार फागु काव्यों आदि ग्रन्थों में संग्रहीत कृतियां दृष्टव्य हैं । अनेक संस्थाओं और पत्न-पत्रिकाओं के माध्यम से संवत् 1500 के पश्चात् सैकड़ों जैन रचनायें प्रकाश में लाई गई हैं। इन सबका संक्षिप्त विवरण भी यहां नहीं दिया जा सकता । आगे जैन साहित्य की कतिपय प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है:--
1. 'मारू गुर्जर' के प्राचीनतम रूप का पता जैन कृतियों से ही मिलता है । शताब्दी से अर्वाचीन काल तक प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की रचनायें मिलती हैं ।
2. अनेक रचना - प्रकार और काव्यरूप मिलते हैं ।
प्राचीनतम गद्य के नमूने भी जैन कृतियों में ही मिलते हैं ।
4. रचनाओं में नीति, धर्म, सदाचरण और आध्यात्म की प्रेरणा मुख्य हैं । रसप्रधान हैं ।
3.
1 3वीं
शान्त
5.
जैन पुराणानुसार कथा काव्य और रचित काव्यों की प्रचुर मात्रा में सृष्टि हुई है ।
1. विभिन्न लोक प्रचलित कथानकों के आधार पर भी जैन धर्मानुसार काव्य सृजन किया गया है । विक्रमादित्य, भोज, अलाउद्दीन - पद्मिनि, ढोला-मारू, सदयवत्स - सावलिंगा आदि से संबंधित अनेकशः रचनायें जैन कवियों ने लिखी हैं ।
A.
7.
लोकगीतों और लोककथाओंों की देशियों को अपना कर लोक साहित्य का संरक्षण किया है । बहुत से जैन कवियों ने प्रसिद्ध और प्राचीन लोकगीतों की देशियों की चाल पर अपनी कृतियां ढालबद्ध की हैं । इनसे अनेकशः लोकगीतों की प्राचीनता और प्रचलन का पता लगाया जा सकता है । श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाई ने ऐसी लगभग 2500 देशियों की सूची दी है।
इस प्रकार लगभग संवत् 1100 से वर्तमान समय तक राजस्थानी साहित्य अनेक धाराओं में प्रवाहित हो रहा है। देश और काल के अनुसार कई धारायें क्षीण भी हुई; कई किंचित परिवर्तित भी हुई; अनेक लोकभूमि का जीवन रस पाकर 'नई' भी मिलीं परन्तु सामूहिक रूप में इसका सातत्य निरन्तर बना रहा ।