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चम्पूविधा में कुवलयमालाकहा के अतिरिक्त कोई अन्य स्वतन्त्र रचना प्राकृत में नहीं है । यद्यपि गद्य-पद्य में कई प्राकृत चरित्र ग्रन्थ लिखे गये हैं। 1
3. व्यंग्य कथा-धूर्ताख्यान -
. राजस्थान में रचित प्राकृत साहित्य में 'घूर्ताख्यान' व्यंगोपहास शैली में लिखी गयी अनूठी रचना है। प्राचार्य हरिभद्र ने इसे चित्तौड में लिखा था। 2 समराइच्चकहा में हरिभद्र न काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया है तो धूर्ताख्यान में वे एक कुशल उपदेशक के रूप में प्रगट हुए हैं। इस कथा में हरिभद्र ने पुराणों और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों में पायी जाने वाली कथाओं की अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक और अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवत्तियों का कथा के माध्यम से निराकरण किया है।
धूर्ताख्यान का कथानक सरल है। यह पांच धूर्तशिरोमणि मूलश्री, कंडरीक, एलाषाढ, शश और खंडयाणा की कथा है। चार पुरुष और एक नारी खंडयाणा इस कथा के मूल संवाहक है। इनमें से प्रत्येक धूर्त असंभव और काल्पनिक अपनी कथा कहता है। दूसरे धूर्त उसकी कथा को प्राचीन ग्रन्थों के उदाहरण देकर सही सिद्ध कर देते हैं। अन्त में खंडयाणा अपना अनुभव सुमाती है
तरुण अवस्था में में अत्यन्त रूपवती थी । एक बार में ऋतु-स्नान करके मंडप में सो रही थी। तभी मेरे लावण्य से विस्मित होकर पवन ने मेरा उपभोग किया । उससे तुरन्त ही मुझे एक पुत्र उत्पन्न हुआ और वह मुझसे पूछकर कहीं चला गया।
यदि मेरा उक्त कथन असत्य है तो आप चारों लोग हमारे भोजन का प्रबन्ध करें और यदि मेरा अनभव सत्य है तो इस संसार में कोई भी स्त्री अपुत्रवती न होनी चाहिये। क्योंकि पवन (हवा) के समागम से सबको पुत्र हो सकता है ।
मूल श्री नामक धूर्त ने खंडयाणा के इस कथन का समर्थन महाभारत आदि के उद्धरण देकर किया।
हरिभद्र जैन परम्परा को मानने वाले थे। अतः उन्होंने वैदिक परम्परा में प्रचलित काल्पनिक कथाओं एवं अबौद्धिक धारणाओं का निरसन करना चाहा है। कथाकार ने स्वयं इन मान्यताओं पर सीधा प्रहार न कर कथा के पात्रों द्वारा व्यंग शैली में उनकी निस्सारता उपस्थित की है। सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय,ब्रह्मा-विष्ण-महेश की अस्वाभाविक कल्पना, अग्नि आदि का वीर्यपान, ऋषियों की काल्पनिक कार्य-प्रणाली, अन्धविश्वास आदि अनेक मान्यताओं का खण्डन इस प्रन्थ द्वारा इना है। किन्तु शैली इस प्रकार की है कि पाठक ग्रन्थ को उपन्यास जैसी रुचि से पढ सकता है। सर्वत्र कौतूहल बना रहता है। हास्य-व्यंग की इस अन पम कृति से प्राचार्य हरिभद्र की मौलिक कथा-शैली परिलक्षित होती है। धाख्यान की इस शैली ने आगे चलकर धर्मपरीक्षा जैसी महत्वपूर्ण विधा को विकसित किया है ।
1. शास्त्री, प्रा. सा. आ. ह., पृ. 3371 2. चित्तउडदुग्ग सिरीसंठिएहिं सम्मत्तराय रत्तेहि । ___ सुचरित्र समूह सहिया कहिया एसा कहा मुवरा।। 3. उपाध्ये, 'धूर्ताख्यान' भूमिका । 4. द्रष्टव्य लेखक का निबन्ध--'कुवलयमाला में धम्मपरीक्खा अभिप्राय
--जैन सिद्धान्त भास्कर, 1975