SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4. चरित - काव्यः -- 31 प्राकृत काव्यों में कथा -ग्रन्थों के अतिरिक्त चरित्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं । चरित्र काव्यों के मूल स्रोत जैन आगम ग्रन्थ हैं । उनके प्रमुख महापुरुषों के चरित्रों को लेकर इन काव्य-ग्रन्थों की रचना की है। प्राकृत के चरित्र - काव्यों में कथा एवं नीति दोनों साथ-साथ चलती है । प्रमुख चरित्रों के अतिरिक्त जन-जीवन के व्यक्तियों को भी चरित्र इन ग्रंथों में सम्मिलित हैं। राजस्थान प्राकृत साहित्यकारों ने 10-15 चरित्र ग्रन्थों की रचना विभिन्न स्थानों में की है । कुछ प्रमुख चरितकाव्यों का परिचय द्रष्टव्य है । सिरिविजयचंद केवलिचरिय श्री अभयदेवसूरि के शिष्य चन्द्रप्रभ महत्तर न े वि. सं. 1127 में देवावड नगर में वीरदेव के अनरोध पर इस चरित की रचना की थी । विजयचन्द्र के केवलज्ञान की प्राप्ति तक की कथा लेखक को अपनी कल्पना शक्ति से प्रसूत हुई है तथा बाद में जिनपूजा के महात्म्य का प्रतिपादन किया गया है । जितेन्द्र देव की पूजा जिन द्रव्यों से करनी चाहिए उन सबके सम्बन्ध में एक-एक कथा इस चरित काव्य में है । कथाओं का स्वतन्त्र महत्व भी है। वस्तुतः भक्ति मार्ग का प्रतिपादन आलंकारिक भाषा में कथाओं के माध्यम से इस चरित ग्रन्थ में किया गया है । सुरसुन्दरीचरियं सूर के शिष्य साधु धनेश्वर ने वि. सं. 1095 में चड्डावलि ( आबू ) नामक स्थान में इस ग्रन्थ की रचना की थी । यह एक प्रेमकथा है। सुरसुन्दरी और मकरकेतु की इस प्रणय- कथा को कवि न े इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है कि धार्मिक वर्णनों का बोझ ही प्रतीत नहीं होता । सारी कथा, नायिका को चारों और घूमती है । चरितों के मनोवैज्ञानिक विकास को प्रस्तुत करने में तथा काव्यात्मक वर्णनों की छटा दिखाने में धनेश्वरसूरि को पूर्ण सफलता मिली है । विरह से संतप्त हुए पुरुष की उपमा कवि ने भाड में भूजे जाते हुए चने के साथ दी है- 'भट्ठियो विय सयणीये कीस तडफडसि' एक स्थान में कहा गया है कि राग क े न होने से सुख एवं रागयुक्त होने से दु:ख प्राप्त होता है- 1. शास्त्री, प्रा. सा. इ., पृ. 308-101 2. देयrasवरनयरे रिसहजिणंदस्स मंदिरे रइयं । नियवीरदेव सीसस्स साहुणो तस्स वयणेणं । -- प्रशस्ति, 151 3. चड्डावलिपुरिट्टियो स गुरुणो प्राणाए पाढंतरा । कासी विक्कम-वच्छरम्मि य गए बाणंक सुन्नोडुये ॥ मासे भट् गुरुम्म कसिणो वीया धणिट्ठादिने ॥ सु. च. 16-250-51
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy