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तावच्चिय परमसहं जाव न रागो मणम्मि उच्छरइ । हंदि!सरागम्मि मण दुक्खसहस्साईपविसति ।।
इस चरित-काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव है। समस्त काव्य प्रौढ एवं उदारत्त शैली में लिखा गया है।
रयणचूडारायचरियं
इसके रचियता आचार्य नेमिचन्द्र है । इन्होंने इस काव्य को गुजरात एवं राजस्थान दोनों प्रदेशों में भ्रमण करते हुये पूरा किया था। प्राकृत गद्य में रचित यह धर्मप्रधान कथा है । इस चरित-काव्य मे नायक रत्नचूड का सम्पूर्ण चरित वर्णित है। उसके चरित का विकास किस क्रम से हुया है, इसका काव्यात्मक वर्णन इस ग्रन्थ में है । मनोभावों का यहां सुन्दर चित्रण किया गया है। घटनाक्रम में पूर्वजन्म की घटनाएं वर्तमान जीवन के चरित का स्फोटन करती है। अवान्तर कथाओं का संयोजन भी सुन्दर ढंग से हुआ है। इस कथा में नायक ने जो नायिका को पत्र लिखा है, वह बहुत मार्मिक है।2 काव्य के वस्तु वर्णन प्रशंसनीय हैं।
सुदंसणाचरिय
यह चरितकाव्य देवेन्द्रसूरि का लिखा हुआ है। इन्होंने अर्ब दगिरि पर सूरिपद प्राप्त किया था। अतः राजस्थान प्रापका कार्यक्षेत्र रहा होगा। इस ग्रन्थ में सुदर्शना राजकुमारी के जीवन की कथा है । वह अनेक विधाओं व कलाओं में पारंगत होकर श्रमणधर्म में दीक्षित होती है । अवान्तर कथाओं द्वारा उसके जीवन के विकास को उठाया गया है। शील की काव्य में प्रतिष्ठा है। कवि जीवन की तीन विडम्बनामों को गिनाता है
तक्क विहूणो विज्जो, लक्खणहीणो य पंडिनो लोए। भावविहूणो धम्म) तिण्णिवि गरुइ विडम्बणया ॥
अंजनासुन्दरी चरित
राजस्थान में केवल पुरुष कवियों ने ही नहीं, अपितु साध्वियों ने भी प्राकृत में रचनाएं लिखी है। जिनश्वरसूरि की शिष्या गुणसमृद्धि महत्तरा ने प्राकृत में अंजनासुन्दरी चरित की रचना की थी। इस ग्रन्थ की रचना जैसलमेर में हुई थी। 504 श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ में महसती अंजना का जीवन-चरित सरस शैली में वर्णित है।
1. डिडिलवनिवेसे पारद्धा संहिएण सम्पत्ता । चड्डावल्लिपुरीए एसा फग्गुंणचउम्भासे ॥
र. च., प्रशस्ति, 22 2. शास्त्री, प्रा. सा. आ. इ., पृ. 348
3. जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 561
4. देशाई, जै. सा. सं. इ., पृ. 438