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सब पापों से दूर हटने के लिये प्रात:-सायं प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते हैं। ये नंगे पैर पैदल चलते हैं। गांव-गांव और नगर-नगर में विचरण कर नैतिक चेतना और सषप्त पुरुषार्थ को जागत करते हैं। चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत-वास नहीं करते। अपने पास केवल इतनी वस्तुयें रखते हैं जिन्हें ये अपने आप उठाकर विचरण कर सकें। भोजन के लिये गृहस्थों के यहां से भिक्षा' लाते हैं। भिक्षा भी जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही। दूसरे समय के लिये भोजन का संचय ये नहीं करते। रात्रि में न पानी पीते हैं न कुछ खाते हैं।
इनकी दैनिक चर्या भी बड़ी पवित्र होती है। दिन-रात ये स्वाध्याय, मनन-चिन्तन, लेखन और प्रवचन आदि में लगे रहते हैं। सामान्यतः ये प्रतिदिन संसार के प्राणियों को धर्मबोध देकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। इनका समचा जीवन लोक-कल्याण में ही लगा रहता है। इस लोकसेवा के लिये ये किसी से कुछ नहीं लेते।
श्रमण धर्म की यह प्राचारनिष्ठ दैनन्दिनचर्या इस बात का प्रबल प्रमाण है कि ये श्रमण सच्चे अर्थों में लोक-रक्षक और लोकसेवी हैं। यदि आपत्काल में अपनी मर्यादानों से तनिक भी इधर-उधर होना पड़ता है तो उसके लिये भी ये दण्ड लेते हैं, व्रत-प्रत्याख्यान करते हैं। इतना ही नहीं जब कभी अपनी साधना में कोई बाधा आती है तो उसकी निव त्ति के लिये परीषह और उपसर्ग आदि की सेवना करते हैं। मैं नहीं कह सकता, इससे अधिक आचरण की पवित्रता, जीवन की निर्मलता और लक्ष्य की सार्वजनीनता और किस लोक-संग्राहक की होगी?
सामान्यतः यह कहा जाता है कि जैनधर्म ने संसार को दुःखमूलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन में संयम और विराग की अधिकता पर बल देकर उसकी अन राग भावना और कला प्रेम को ठित किया है। पर यह कथन साधार नहीं है, भ्रांतिमलक है। यह ठीक है कि जैन धर्म ने संसार को दुःखमूलक माना, पर किसलिये? अखण्ड आनन्द की प्राप्ति के लिये, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिये। यदि जैन धर्म संसार को दु:खपूर्ण मान कर ही रुक जाता, सुख प्राप्ति की खोज नहीं करता, उसके लिये साधना-मार्ग की व्यवस्था नहीं देता तो हम उसे निराशावादी कह सकते थे, पर उसमें तो मानव को महात्मा बनाने की आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का बीज छिपा हुआ है। देववाद के नाम पर अपने को असह्य और निर्बल समझी जाने वाली जनता को किसने प्रात्म-जागति का सन्देश दिया? किसने उसके हृदय में छिपे हुये पुरुषार्थ को जगाया ? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया ? जैन धर्म की यह विचारधारा युगों बाद आज भी बुद्धिजीवियों की धरोहर बन रही है, संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है।
यह कहना भी कि जैन धर्म निरा निवृत्तिमूलक है, ठीक नहीं है। जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्व दिया है। इस धर्म के उपदेशक तीर्थंकर लौकिक-अलौकिक बैभव के प्रतीक हैं। दैहिक दृष्टि से वे अनन्त बल, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त पराक्रम के धनी होते हैं। इन्द्रादि मिलकर उनके पंच कल्याणक महोत्सवों का आयोजन करते हैं। उपदेश देने का उनका स्थान (समवसरण) कलाकृतियों से अलंकृत होता है। जैन धर्म ने जो निवृत्तिमूलक बातें कहीं हैं, वे केवल उच्छृखलता और असंयम को रोकने के लिये ही हैं।
जैन धर्म की कलात्मक देन अपने आप में महत्वपूर्ण और अलग से अध्ययन की अपेक्षा रखती है। वास्तुकला के क्षेत्र में विशालकाय कलात्मक मन्दिर, मेरुपर्वत की रचना, नंदीश्वर द्वीप व समवसरण की रचना, मानस्तम्भ, चैत्य, स्तूप आदि उल्लेखनीय हैं। मूर्तिकला में विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों को देखा जा सकता है। चित्रकला में भित्तिचित्र, ताडपत्रीय चित्र, काष्ट चित्र, लिपिचित्र, वस्त्र चित्र पाश्चर्य में डालने वाले हैं। इस प्रकार निवृत्ति और