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________________ 12 इस महान् साधना को जो साध लेता है वह श्रमण बारह उपमानों से उपमित किया गया है:-- उरग-गिरि-जलण-सागर णहतल-तरुगण-समो य जो होई । भमर-मिय-धरणि-जलरुह रवि-पवण समो य सो समणो ।। अर्थात् जो सर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्षपवित, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य, और पवन के समान होता है, वह श्रमण कहलाता है। ये सब उपमायें सामिप्राय दी गई हैं। सर्प की भांति ये साधु भी अपना कोई घर (बिल) नहीं बनाते। पर्वत की भांति ये परीषहों और उपसर्गों की प्रांधी से दोलायमान नहीं होते। अग्नि की भांति ज्ञान रूपी ईन्धन से ये तप्त नहीं होते। समुद्र की भांति अथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी ये तीर्थंकर की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते । अाकाश की भांति ये स्वाश्रयीस्वालम्बी होते हैं, किसी के अवलम्बन पर नहीं टिकते। वृक्ष की भांति समभाव पूर्वक दुःखसुख को सहन करते हैं। भ्रमर की भांति किसी को बिना पीडा पहंचाये शरीर-रक्षण के लिये आहार ग्रहण करते हैं। मृग की भांति पापकारी प्रवृत्तियों के सिंह से दूर रहते हैं। पृथ्वी की भांति, शीत, ताप, छेदन, भेदन अादि कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते हैं । कमल की भांति वासना के कीचड़ और वैभव के जल से अलिप्त रहते हैं। सूर्य की भांति स्वसाधना एवं लोकोपदेशना के द्वारा अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं। पवन की भांति सर्वत्र अप्रतिबद्ध रूप से विचरण करते हैं। ऐसे श्रमणों का वैयक्तिक स्वार्थ हो ही क्या सकता है ? __ ये श्रमण पूर्ण अहिंसक होते हैं। षट्काय । (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और वसकाय) जीवों की रक्षा करते हैं। न किसी को मारते हैं, न किसी को मारने की प्रेरणा देते हैं और न जो प्राणियों का वध करते हैं, न उनकी अनुमोदना करते हैं। इनका यह अहिंसा प्रेम अत्यन्त सूक्ष्म और गंभीर होता है। ये अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भी उपासक होते हैं। किसी की वस्तु बिना पूछे नहीं उठाते। कामिनी और कंचन के सर्वथा त्यागी होते हैं। पावश्यकता से भी कम वस्तुओं का सेवन करते हैं। संग्रह करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं। ये मनसा, वाचा, कर्मणा किसी का वध नहीं करते। हथियार उठाकर किसी अत्याचारी, अन्यायी राजा का नाश नहीं करते, लेकिन इससे उनके लोक संग्रही रूप में कोई कमी नहीं पाती। भावना की दृष्टि से तो उसमें और वैशिष्ट्य आता है। ये श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नहीं उतारते वरन उन्हें आत्मबोध और उपदेश देकर सही मार्ग पर लाते हैं। ये पापी को मारने में नहीं, उसे सुधारने में विश्वास करते हैं। यही कारण है कि महावीर ने विषदृष्टि सर्प चण्डकौशिक को मारा नहीं वरन् अपने प्राणों को खतरे में डाल कर, उसे उसके अात्मस्वरूप से परिचित कराया। बस फिर क्या था? वह विष से अमत बन गया । लोक-कल्याण की यह प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है। इनका लोक-संग्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है। ये मानव के तनिक हित के लिये अन्य प्राणियों का बलिदान करना व्यर्थ ही नहीं धर्म के विरुद्ध समझते हैं। इनकी यह लोकसंग्रह की भावना इसलिये जनतन्त्र से आगे बढ़कर प्राणतन्त्र तक पहुंची है। यदि प्रयतना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमादवश किसी को कष्ट पहंचता है तो ये उन
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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