________________
14
प्रवत्ति का समन्वय कर जैन धर्म ने संस्कृति को लचीला बनाया है। उसकी कठोरता को कला की बांह दी है तो उसकी कोमलता को संयम की दृढ़ता।
माहित्य-निर्माण के प्रेरक तत्त्व:
जैन साहित्य निर्माण लौकिक यग और सम्पदा प्राप्ति के लिए न किया जाकर यात्मशद्धि, मामाजिक जागरण और लोक मंगल की भावना से प्रेरित होकर दिया जाता रहा है। यों तो साहित्य निर्माण में मन्तों और गृहस्थों दोनों का योग रहा है पर साहित्य का शधिकांश भाग मन्तों द्वारा ही निमित रहा है। सन्तों की यात्मानुभूति और लोक सम्पर्कका व्यापक अनुभव इस साहित्य को जीवन्त, प्राणवान और लोकभोग्य बनाये हुए है। तटस्थ वृत्ति और उदार दृष्टिकोण के कारण जीवन के नानाविध पक्षों को स्पर्श करने वाला यह साहित्य केवल भावना के स्तर पर ही निर्मित नहीं हया है, ज्ञान-चेतना के स्तर पर धर्मेतर विषयों से सम्बद्ध, यथा-गणित, वैद्य क, ज्योतिष, स्थापत्य पर भी विपूल परिमाण में साहित्य रचा गया है।
साहित्य समाज का दर्पण होता है। उसमें यग विशेष की घटनायें और प्रवत्तियां प्रतिविम्बित होती हैं। जैन साहित्य भी अपने युग के घटना-चक्रों से प्रेरित-प्रभावित रहा है और
कि मन्तों का सम्बन्ध उच्च-वर्ग से लेकर सामान्य-वर्ग तक बराबर बना रहता है, इस कारण यह साहित्य केवल आभिजात्य वर्ग की मनोवृत्ति का चितेरा बन कर नहीं रह गया है, इसमें सामान्य जन की आशा-याकांक्षा और लोक-जीवन की चित्त-वृतियां यथार्थ-रूप में चित्रित
प्रतिदिन प्रवचन देना जैन सन्तों का मख्य कर्तव्य-कर्म है। प्रवचन रोचक और सरस होने के साथ-साथ श्रोताओं में ग्रौत्सुक्य वृत्ति जनाये रख, तथा गढ़ दार्शनिक-तात्विक सिद्धान्त सहज हृदयंगम हो जायें, इस भावना से जैन सन्तप्रायः कथा-काव्य या चरित-काव्य की सष्टि बराबर करते रहे हैं। अपने शिष्यों और धावकों में नियमित रूप से अध्ययन और स्वाध्याय का क्रम चलता रहे, इस भावना से प्रेरित होकर भी समय-समय पर नये ग्रन्थों की रचनायें होती रही है तथा प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों पर टीकायें, व्याख्यायें और वचनिकायें लिखी जाती रही है। विभिन्न पर्व तिथियों, धार्मिक उत्सवों, जयन्नियों और विशेष समारोहों पर भी सामयिक साहित्य रचा जाता रहा है। श्रद्धेय महापुरुषों, प्रभावशाली मनि-प्राचायों और विशिष्ट श्रावकों तथा प्रेरणादायी चरितों पर भी इतिहास की संवेदना के धरातल से जीवनी परक साहित्य लिखा जाता रहा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्राचीन गौरव-गान, पाराध्य के प्रति भक्ति-भाव, सिद्धान्त-निरूपण, व्यावहारिक ज्ञान, चरित्र-गठन, समाज-सुधार, राष्ट्रीय-जागरण, लोकमंगल और विश्वजनीन भावों की स्फरणा पैदा करने की भावना जैन साहित्य निर्माण में मल प्रेरणा और कारक रही है।
साहित्य-रक्षण के प्रयत्न :
जैन साहित्य के मूल ग्रन्थ आगम हैं जो द्वादशांगी' कहे जाते हैं। जैन मान्यतानुसार तीर्थकर अपनी देशना में जो अभिव्यक्त करते हैं, उनके प्रमुख शिष्य गणधर शासन के हितार्थ अपनी शैली में उन्हें सूत्रबद्ध करते हैं। वे ही बारह अंग प्रत्येक तीर्थकर के शासन-काल में 'द्वादशांगी' सूत्र के रूप में प्रचलित एवं मान्य होते है। 'द्वादशांगी' का 'गणिपिटक' के नाम मे भी उल्लेख किया गया है। इस मान्यता के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के अन्तिम चौबीसवें तीर्थ कर भगवान महावीर द्वारा चविध तीर्थ की स्थापना के दिन जो प्रथम उपदेश इन्द्रभूति आदि