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ग्यारह गणधरों को दिया गया, वह "द्वादशांगी" के रूप में सुत्रबद्ध किया गया। बारहवें अंग दृष्टिवाद का तो आज से बहुत समय पहले विच्छेद हो गया। ग्राज जो एकादशांगी उपलब्ध है वह आर्य सुधर्मा की बाचना का ही परिणाम है।
समय-समय पर दीर्घकाल के दुभिक्ष आदि देवी-प्रकोप के कारण श्रमण वर्ग एकादशांगी के पाठों का स्मरण, चिन्तन ,मनन आदि नहीं कर सका, परिणाम स्वरूप सूत्रों के अनेक पाठविस्मत होने लगे। अत: अंग शास्त्रों की रक्षा हेतु वीर निर्वाण संवत् 160 में स्थूलभद्र के तत्वावधान में पाटलिपुत्र में प्रथम आगम वाचनाहई। फलस्वरूप विस्मृत पाठों को यथातथ्यरूपेण संकलित कर विनष्ट होने से बचा लिया गया ।
वीर निर्वाण संवत 830 से 840 के बीच विषम स्थिति होने से फिर पागम-विच्छेद की स्थिति उत्पन्न हो गई प्रतः स्कन्दिलाचार्य के तत्वावधान में मथुरा में उत्तर भारत के श्रमणों की दुसरी वाचना हई, जिसमें जिस-जिस स्थविर को जो-जो श्रुत पाटस्मरण था, उसे सुन-सुनकर प्रागमो के पाठ को सुनिश्चित किया गया। मथुरा में होने के कारण यह वाचना माथरी वाचना के नाम से भी प्रसिद्ध है। ठीक इसी समय नागार्जन
सरसोयनागार्जन ने दक्षिणापथ के श्रमणों को एकत्र कर वल्लभी में वाचना की। इसके 150 वर्ष बाद वीर निर्वाण संवत् 980 में देवद्धि क्षमा श्रमण के तत्वावधान म वल्लभी में तीसरी वाचनाहई जिसमें शास्त्र लिपिबद्ध किये गये। कहा जाता है कि समय की विषमता. मानसिक दुर्वलता औरधा की मन्दता श्रादि कारणों से जब सूत्रार्थ का ग्रहण एवं परावर्तन कम हो गया, तो देवद्धि ने शास्त्रों को लिपिबद्ध करने का निर्णय किया। इसके पूर्व सामान्यतः शास्त्र श्रुति परम्परा से ही सुरक्षित थे। देवद्धि क्षमाश्रमण के प्रत्यनों से ही शास्त्र पहली बार व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध किये गये। दिगम्बर परम्परा की मान्यता के अनसार वीर निर्वाण संवत 683 में ही सम्पूर्ण द्वादशांगी बिलुप्त हो गई।
जैन धर्म में स्वाध्याय को प्राभ्यन्तर तप का अंग माना गया है। स्वाध्याय के लिए ग्रन्थों का होना आवश्यक है। अत: नये-नये ग्रन्थों की रचना के साथ-साथ उनकी सुरक्षा करना भी धर्म का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। मुद्रण के आविष्कार से पूर्व ग्रन्थ पांडुलिपियों के रूप में ही सुरक्षित रहते थे। उनकी सुरक्षा के लिए सन्तों की प्रेरणा से विभिन्न स्थानों पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये जाते रहे। आज जो कुछ प्राचीन और मध्ययुगीन साहित्य उपलब्ध है, वह इन्हीं ज्ञान भण्डारों की देन है। महत्वपूर्ण ग्रन्थों की एक से अधिक प्रतिलिपियां करायी जाती थीं। ग्रन्थों का यह प्रतिलिपिकरण कार्य श्रुत-सेवा का अंग बन गया था। विशेष धार्मिक अवसरों पर यथा श्रुत-पंचमी, ज्ञान-पंचमी पर महत्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियां पूर्ण कर आचार्यों और ज्ञान भण्डारों को समर्पित की जाती थी। प्रतिलिपिकरण का यह कार्य सन्तों और सतियों द्वारा भी सम्पन्न होता रहा ।
साहित्य-रक्षण में जैन समाज की बड़ी उदार दृष्टि रही है। गणग्राहक होने से जहां भी जीवन-उन्नायक सामग्री मिलती, जैन पंत उन्हें लिख लेते। इस प्रकार एक ही गुटके में विभिन्न लेखकों और विविध विषयों की ज्ञान वर्धक, प्रात्मोत्कर्षक, जीवनोपयोगी सामग्री संचित हो जाती। ऐसे अनेक गटके आज भी विभिन्न जान भण्डारों में संगहीत हैं।
जैन सन्त अपने प्रवचनोंग "ामान्यत: नैतिक शिक्षण के माध्यम से, सही ढंग से जीने की कला सिखाते हैं। यही कारण है कि उनके प्रवचनों में जैन कथाओं के साथ-साथ अन्य धमो तथ लोक-जीवन की विविध कथायें, हान्त और उदाहरण यथाप्रसंग आते रहते है। ठीक यही उदार भावना ग्रन्थों के संरक्षण और प्रतिलिपिकरण में रही है। इसका सूखद परिणाम यह