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________________ 16 हा कि जैन ज्ञान भण्डारों में धर्म तथा धर्मेत्तर विषयों के भी कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ बड़ी संख्या में सुरक्षित मिलते हैं। राजस्थान इस दृष्टि से सर्वाधिक मूल्यवान प्रदेश है। हिन्दी के आदिकाल की अधिकांश सामग्री यहां के जैन ज्ञान भण्डारों से ही प्राप्त हई है। जैन साहित्य का महत्त्व : जैन साहित्य का निर्माण यद्यपि आध्यात्मिक भावना से प्रेरित होकर किया गया है पर वह वर्तमान सामाजिक जीवन से कटा हुआ नहीं है। जैन साहित्य के निर्माता जन सामान्य के अधिक निकट होने के कारण समसामयिक घटनाओं, धारणाओं और विचारणाओं को यथार्थ अभिव्यक्ति दे पाये हैं। इस दृष्टि से जैन साहित्य का महत्व केवल व्यक्ति के नैतिक सम्बन्धों की दृष्टि से ही नहीं है वरन सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से भी है। आज हमें अपने देश का जो इतिहास पढ़ने को मिलता है वह मुख्यतः राजा-महाराजाओं और सम्राटों के वंशानुक्रम का इतिहास है। उसमें राजनैतिक घटना-चक्रों, युद्धों और मंधियों की प्रमुखता है। उसके समानान्तर चलने वाले धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों को विशेष महत्व नहीं दिया गया है और उससे सम्बद्ध स्रोतों का इतिहास लेखन में सावधानीपूर्वक बहुत कम उपयोग किया गया है। जैन साहित्य इस दष्टि से अत्यन्त मुल्यवान है। जैन सन्त ग्रामानुग्राम पादविहारी होने के कारण क्षेत्र-विशेष में घटित होने वाली छोटी सी छोटी घटना को भी सत्य रूप में लिखने के अभ्यासी रहे हैं। समाज के विभिन्न वर्गों से निकटता का सम्पर्क होने के कारण वे तत्कालीन जन-जीवन की चिन्ताधारा को सही परिप्रेक्ष्य में समझने और पकड़ने में सफल रहे हैं। इस प्रक्रिया से गुजरने के कारण उनके साहित्य में देश के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास-लेखन की प्रचुर सामग्री बिखरी पड़ी है। इतिहास-लेखन में जिस तटस्थ वृत्ति, व्यापक जीवनानुभति और प्रामाणिकता की अपेक्षा होती है, वह जैन सन्तों में सहज रूप से प्राप्य है। वे सच्चे अर्थों में लोक-प्रतिनिधि हैं। न उन्हें किसी के प्रति लगाव है न दुराव । निन्दा और स्तुति से परे जीवन की जो सहज प्रकृति और संस्कृति है, उसे अभिव्यंजित करने में ही ये लगे रहे। इनका साहित्य एक ऐसा निर्मल दर्पण है जिसमें हमारे विविध प्राचार-व्यवहार, सिद्धान्त-संस्कार, रीति-नीति, वाणिज्य-व्यवसाय, धर्म-कर्म, शिल्पकला, पर्व-उत्सव, तौर-तरीके, नियम-कानून आदि यथारूप प्रतिबिम्बित हैं । जहां तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन को जानने और समझने का जैन साहित्य सच्चा बेरोमीटर है, वहां जीवन की पवित्रता, नैतिक-मर्यादा और उदात्त जीवन-आदर्शों का व्याख्याता होने के कारण यह साहित्य समाज के लिए सच्चा पथप्रणेता और दीपक भी है। इसका अध्यता निराशा में प्राशा का सम्बल पाकर, अन्धकार से प्रकाश की ओर चरण बढ़ाता है। काल को कला में, मत्य को मंगल में और उष्मा को प्रकाश में परिणत करने की क्षमता हैइस साहित्य में । जैन साहित्य का भाषा शास्त्र के विकासात्मक अध्ययन की दष्टि से विशेष महत्त्व है। भाषा की सहजता और लोक भूमि की पकड़ के कारण इस साहित्य में जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित हैं। इनके आधार पर भारतीय भाषाओं के ऐतिहासिक विकास और पारस्परिक सांस्कृतिक एकता के सूत्र आसानी से पकड़े जा सकते हैं । जैन साहित्यकार मख्यत: प्रात्मधर्मिता के उदगाता होकर भी प्रयोगधर्मी रहे हैं। अपने प्रयोग में क्रान्तिवाही होकर भी वे अपनी मिट्टी और जलवायु से जुड़े हुए हैं। अतः उनके साहित्य
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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