SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17 में भारतीय अध्यात्म-धारा की प्रवहमानता देखी जा सकती है। इस दृष्टि से भारतीय साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों और धाराम्रों को इससे पुष्टता और गति मिली है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य इतिहासों को भी जैन साहित्य के कथ्य और शिल्प ने काफी दूर तक प्रभावित किया है। हिन्दी साहित्य की आध्यात्मिक चेतना को आज तक जागृत और क्रमबद्ध रखने में जैन साहित्य की दार्शनिक संवेदना की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । जैन साहित्य की विशेषताएं : ऊपर हमने जैनदर्शन के जिन सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक समन्वय और लोक-संग्राहक रूप के तत्त्वों की चर्चा की है, वे ही प्रकारान्तर से जैन साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं अतः यहां जैन साहित्य की विचार भूमि पर विचार न करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख किया जाता है- जैन साहित्य विविध और विशाल है । सामान्यतः यह माना जाता है कि जैन साहित्य में निर्वेद भाव को ही अनेक रूपों और प्रकारों में चित्रित किया गया है । यह सच है कि जैन साहित्य का मूल स्वर शान्त रसात्मक है पर जीवन के अन्य पक्षों और सार्वजनीन विषयों की ओर से उसने कभी मुख नहीं मोड़ा है। यही कारण है कि आपको जितना वैविध्य यहां मिलेगा, कदाचित् अन्यत्र नहीं । एक ही कवि ने शृंगार की पिचकारी भी छोड़ी है और भक्ति का राग भी अलापा है । वीरता का प्रोजपूर्ण वर्णन भी किया है और हृदय को विगलित कर देने वाली करुणा की बरसात भी की है । साहित्य के रचनात्मक पक्ष से प्रार्गे बढ़कर उसने उसके बोधात्मक पक्ष को भी सम्पन्न बनाया है । व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र-तन्त्र, इतिहास, भूगोल, दर्शन, राजनीति श्रादि वाङ्गमय के विविध अंग उसकी प्रतिभा का स्पर्श पा कर चमक उठे हैं । विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण जैन साहित्य दो भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) गम साहित्य और ( 2 ) श्रागमेतर साहित्य । श्रागम साहित्य के दो प्रकार हैं-अर्थ श्रागम और सूत्र श्रागम । तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट वाणी अर्थागम है। तीर्थंकरों के प्रवचन के आधार पर गणधरों द्वारा रचित साहित्य सूत्रागम है । ये श्रागम आचार्यों के लिये प्रक्षय ज्ञानभण्डार होने से गणिपिटक तथा संख्या में बारह होने से 'द्वादशांगी' नाम से भी अभिहित किये गये हैं । प्रेरणा की अपेक्षा से ये अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं। द्वादशांगी के अतिरिक्त जो अन्य उपांग छेद, मूल नौर मावश्यक हैं, वे पूर्वधर स्थविरों द्वारा रचे गये हैं और अनंग प्रविष्ट कहलाते हैं । श्रागमेतर साहित्य के रचयिता जैन श्राचार्य, विद्वान्, सन्त आदि हैं । इसमें गद्य और पद्य के माध्यम से जीवनोपयोगी सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह वैविध्यपूर्ण जैन साहित्य अत्यन्त विशाल है । हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल का अधिकांश भाग तो इसी से सम्पन्न बना है । साहित्य निर्माण की यह प्रक्रिया आज तक प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी श्रादि भाषाओं में अनवरत रूप से जारी है । जैन साहित्य की यह विविधता विषय तक ही सीमित न रही। उसने रूप और शैली में भी अपना कौशल प्रकट किया । काव्य रूपों के सम्बन्ध में जैन कवियों की दृष्टि बड़ी उदार रही है। उन्होंने प्रचलित शास्त्रीय रूपों को स्वीकार करते हुए भी लोकभाषा के काव्यरूपों में व्यापकता श्रौर सहजता का रंग भरा ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy