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है, किन्तु उन्हें एक साथ चित्रित करने के दुस्साध्य कार्य की पूर्ति के लिये कवि को चिकट चित्रशैली तथा उच्छृंखल शाब्दी - क्रीडा का श्राश्रय लेना पड़ा है जिससे काव्य वज्रवत् दुर्भेद्य बन गया है । टीका के जल-पाथेय के बिना काव्य के इस महस्थल को पार करना सर्वथा असंभव है । ग्रन्थप्रशस्ति के अनुसार सप्तसन्धान की रचना सम्वत् 1760 में हुई थी 1 |
सात व्यक्तियों के चरित को एक साथ ग्रथित करना दुस्साध्य कार्य है । प्रस्तुत काव्य में यह कठिनाई इसलिये और बढ़ गयी है कि यहां जिन महापुरुषों का जीवनवृत्त निबद्ध है, उनमें से पांच जैन धर्म के तीर्थ कर हैं, अन्य दो हिन्दू धर्म के प्राराध्य देव, यद्यपि जैन साहित्य में भी वे अज्ञात नहीं हैं । कवि को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे अधिक सहायता संस्कृत भाषा की संश्लिष्ट प्रकृति से मिली है । श्लेष एक ऐसा अलंकार है जिसके द्वारा कवि भाषा को इच्छानुसार तोड़-मरोड़ कर उससे अभीष्ट अर्थ निकाल सकता है । इसलिए काव्य में श्लेष की निर्बाध योजना की गयी है, जिससे काव्य का सातों पक्षों में अर्थ ग्रहण किया जा सके । किन्तु यहां यह ज्ञातव्य है कि सप्तसन्धान के प्रत्येक पद्य के सात अर्थ नहीं हैं। वस्तुतः ऐसे पद्य बहुत कम हैं जिनके सात स्वतंत्र अर्थ किये जा सकते हैं । अधिकांश पद्यों के तीन अर्थ निकलते हैं, जिनमें से एक जिनेश्वरों पर घटित होता है, शेष दो का सम्बन्ध राम तथा कृष्ण से है । तीर्थ करों की निजी विशेषताओं के कारण कुछ पद्यों के चार, पांच प्रथवा छह अर्थ भी किये गये हैं । कुछ पद्य तो श्लेष से सर्वथा मुक्त हैं तथा उनका केवल एक अर्थ है । वही अर्थ सातों नायकों पर चरितार्थ होता है । प्रस्तुत काव्य का यही सप्तसन्धानत्व है । कवि की यह उक्ति भी --- काव्येऽस्मिन्न एवं सप्त कथिता श्रर्थाः समर्थाः श्रिये ( 4142 ) -- इसी अर्थ में सार्थक है । इस सप्तसन्धानात्मक गड्डमड्ड के कारण अधिकांश काव्य - नायकों के चरित धूमिल रह गये हैं । ऋषभदेष की कथा में ही कुछ विस्तार मिलता है ।
अपने काव्य की समीक्षा की जो आकांक्षा कवि ने पाठक से की है, उसकी पूर्ति में उसकी दूरारूढ़ शैली सब से बड़ी बाधा है । पर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि सप्तसन्धान का उद्देश्य चित्रकाव्य-रचना में कवि की दक्षता का प्रदर्शन करना है, सरस कविता से पाठक का मनोरंजन करना नहीं । इसमें कवि पूर्णतः सफल हुआ है
ऐतिहासिक महाकाव्य :--- राजस्थान के जैन कवियों ने दो प्रकार के ऐतिहासिक महाकाव्यों के द्वारा अपनी ऐतिहासिक प्रतिभा की प्रतिष्ठा की है । प्रथम वर्ग के हम्मीर महाकाव्य, कुमारपाल चरित तथा वस्तुपालचरित आदि भारतीय इतिहास के गौरवशाली शासकों के ऐतिहासिक वृत्त का निरूपण करते हैं। दूसरी कोटि के ऐतिहासिक महाकाव्य वे हैं जिनमें संयम धन - साधुओं का जीवन-वृत निबद्ध है, यद्यपि इन तपस्वियों का धर्मशासन सम्राटों से भी अधिक मान्य तथा तेजस्वी था। रोचक संयोग है, इनका इतिहास-पक्ष संस्कृत के प्राचीन बहु प्रसित ऐतिहासिक महाकाव्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विश्वसनीय है । इनमें से कुछ कवित्व की दृष्टि से भी बहुत समर्थ तथा सफल हैं ।
हम्मीर महाकाव्य देश के किस भाग में लिखा गया, इसका कोई संकेत काव्य में उपलब्ध नहीं । यद्यपि जैसे स्वयं नयचन्द्र ने सूचित किया है उसे हम्मीर महाकाव्य के प्रणयन की प्रेरणा तोमरनरेश वीरम के सभासदों की इस व्यंग्योक्ति से मिली थी कि प्राचीन कवियों के समान उत्कृष्ट काव्य-रचना करने वाला अब कोई कवि नहीं 2 तथापि जिस तल्लीनता तथा तादात्म्य से कवि ने राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास का निरूपण किया है उस श्राधार पर यह
1. ग्रन्थ प्रशस्ति, 3.
2. हमीर महाकव्य, 14/ 43