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________________ 123 कल्पना करना अयुक्त नहीं कि नयचन्द्र यदि जन्मना राजस्थानी नहीं थे, तो भी इस प्रदेश से उनका गहरा सम्बन्ध रहा होगा। तभी तो हम्मीर चरित का प्रणयन करने की लालसा उन्हें दिन-रात मथ रही थी 1 । चौदह सर्गों के इस वीरांक काव्य में राजपुती शौर्य की साकार प्रतिमा महाहठी हम्मीरदेव तथा भारतीय इतिहास के कुटिलतम शासक अलाउद्दीन खिलजी के घनघोर युद्धों तथा अन्ततः हम्मीर के प्राणोत्सर्ग का गौरवपूर्ण इतिहास प्रशस्त शैली म निबध्द है । बध्दमूल-परम्परा के अनुसार यद्यपि कवि ने इतिहास को काव्य के आकर्षक परिधान स्तुत किया है, किन्तु हम्मीर महाकाव्य की विशेषता यह है कि इसका ऐतिहासिक भाग कवित्व के इन्द्रधनुषी सौन्दर्य में विलीन नहीं हुप्रा अपितु वह स्पष्ट, सुग्रथित, प्रामाणिक तथा अलौकिक तत्त्वों से प्रायः मुक्त है तथा इसकी पुष्टि यवन इतिहासकारों के स्वतन्त्र विवरणों से होती है । काव्य की दृष्टि से भी नयचन्द्र का ग्रन्थ उच्च बिन्दु का स्पर्श करता है । स्वयं कवि को इसमें काव्यगत वैशिष्टय पर गर्व है ' । ज्ञातव्य है कि काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य-हम्मीरकथा-केवल छः (8-13) सर्गों तक सीमित है। प्रथम चार सर्ग, जिनमें चाहमानवंश की उत्पत्ति तथा हम्मीर के पूर्वजों का वर्णन है, एक प्रकार से, हम्मीरकथा की भूमिका है। नयचन्द्र के सजन में इतिहास तथा काव्य का यह रासायनिक सम्मिश्रण हम्मीर महाकाव्य को अत्युच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करता है । वस्तुपाल-चरित की रचना जिनहर्ष ने चित्रकूटपुर (चित्तौड़) के जिनेश्वर मन्दिर में सम्बत् 1497 (सन् 1440) में की थी 3 । इसके अाठ विशालकाय प्रस्तावों में चोलक्यानरम वीरधवल के नीतिनिपूण महामात्य वस्तुपाल की बहमखी उपलब्धियों, दुर्लभ मानवीय गणों, साहित्यप्रेम तथा जैन धर्म के प्रति अपार उत्साह और उसके प्रचार-प्रसार के लिये किये गये अथक प्रयत्नों, कुटनीतिक कौशल एवं प्रशासनिक प्रवीणता का सांगोपांग वर्णन हुअा है। वस्तुत. काव्य में वस्तुपाल तथा उसके अनुज तेजःपाल दोनों का चरित गुम्फित है, किन्तु वस्तुपाल के गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के प्रकाश में तेजःपाल का वृत्त मन्द पड़ गया है । वस्तुपाल की प्रधानता के कारण ही काव्य का नाम वस्तुपाल चरित रखा गया है । वस्तुपाल चरित को ऐतिहासिक रचना माना जाता है । निस्सन्देह इससे चालुक्यवंश, धौलका-नरेश वीरधवल, विशेषकर उसके प्रखरमति अमात्य वस्तुपाल के विषय में कुछ उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है। किन्तु इन सूक्ष्म ऐतिहासिक संकेतों को पौराणिकता के चक्रव्यूह में इस प्रकार बन्द कर दिया गया है कि पाठक का अभिमन्यु इससे जूझत:-जूझता वहीं खेत रह जाता है। 4559 पद्यों के इस बृहत कान्य में कवि ने ऐतिह सिक सामग्री पर 200-250 से अधिक पद्य व्यय करना उपयुक्त नहीं समझा है। संतोष यह है कि वस्तुपाल चरित का ऐतिहासिक अंश यथार्थ, प्रामाणिक तथा विश्वसनीय है। यही इस काव्य का पाकर्षण है। जैनाचार्यों के इतिहास-सम्बन्धी महाकाव्यों में श्रीवल्लभ पाठक का विजयदेव माहात्म्य महत्वपूर्ण रचना है। उन्नीस सर्गों का यह काव्य तपागच्छ के सुविज्ञात प्राचार्य विजयदेवसूरि के धर्म-प्रधान वृत्त का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है। अपने कथ्य के चित्रण में कवि ने इतनी तत्परता दिखाई है कि चरित-नायक के जीवन की विभिन्न घटनाओं के दिन, नक्षत्र, सम्वत तक का इसमे यथातथ्य उल्लेख हया है। विजयदेवसरि की धामिक गतिविधियों की जानकारी के लिये प्रस्तुत काव्य वस्तुतः बहुत उपयोगी तथा विश्वसनीय है । 1. वही,14/26 2. वही,1446 . वस्तुपालचरित, प्रशस्ति, 11.
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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