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श्रीवल्लभ ने विजयदेव माहात्म्य में इसके रचनाकाल का कोई संकेत नहीं किया है, कन्तु काव्य के आलोडन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसकी रचना सम्वत् 1687 (सन् 1630 ) के पश्चात् हुई थी । विविध ग्रन्थों पर कवि की टीकाओं में [युक्त मारवाड़ी शब्दों के आधार पर यह मानना भी असंगत नहीं कि उसका जन्म राजस्थान के मारवाड प्रदेश में हुआ था ।
देवानन्द महाकाव्य में मेघविजय ने विजयप्रभ के चरित पर दृष्टिपात तो किया, किन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ । दिग्विजय महाकाव्य के तेरह सर्गों में पूज्य गुरु के जीवनवृत्त का स्वतन्त्र रूप से निबद्ध करने की चेष्टा की गयी है । इसकी रचना के मूल में गुरुभक्ति की उदात्त प्रेरणा निहित हैं । किन्तु खेद है कि विद्वान् तथा प्रतिभाशाली होता हुआ भी कवि महाकाव्य रूढ़ियों के जाल में फंस कर अपने निर्धारित लक्ष्य भ्रष्ट हो गया 1274 पद्यों के इस विशाल काव्य को पढने के पश्चात भी विजयप्रभसूरि के विषय में हमारी जानकारी में विशेष वृद्धि नहीं होती, यह कटु तथ्य है । सारा काव्य वर्णनों की बाढ आप्लावित है | इतना अवश्य है कि कवि के अन्य दो काव्यों की भांति इसकी परिणति हता में नहीं ई है, यद्यपि इसके कुछ अंशों में भी पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति फुफकार उठी है ।
पौराणिक महाकाव्यः -- पौराणिक कथाओं के द्वारा जन साधारण को धर्मबोध देने की प्रवृत्ति बहुत प्रभावी तथा प्राचीन है । जैन कवियों ने पौराणिक आख्यानों के आधार राम का रच कर उक्त उद्देश्य की पूर्ति की है। यह बात भिन्न है कि पौराणिक काव्यों में से कुछ अपनी प्रौढता, कवित्व तथा भाषागत सौन्दर्य के कारण शास्त्रीय काव्यों के बहुत निकट पहुंच जाते हैं । कहना न होगा कि जैन साहित्य में पौराणिक रचनाओं का ही बाहुल्य है ।
सनत्कुमारच चरित्र (सन 1205 - 1221 ) राजस्थान के पौराणिक महाकाव्यों में प्रतिष्ठित पद का अधिकारी है । इसके रचयिता जिनपाल उपाध्याय जिनपतिसूरि के शिष्य थे, जिनका जन्म 1153 ईस्वी में जैसलमेर राज्य के विक्रमपुर ( बीकमपुर ) स्थान पर हुआ था तथा जिन्होंने अजमेर के प्रख्यात चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की सभा में पधार कर उसे गौरवान्वित किया था ।
सनत्कुमारचऋिचरित्र के 24 सर्गों में जैन साहित्य में सुविज्ञात चत्री सनत्कुमार के चरित्र का मनोहर शैली में निरूपण किया गया है । इसमें शास्त्रीय तथा पौराणिक शैलियों का इतना गहन मिश्रण है कि इसके स्वरूप का निश्चयात्मक निर्णय करना दुष्कर है। पौराणिक तत्वों के प्राचर्य के कारण इसे पौराणिक काव्य माना गया है, किन्तु इसकी चमत्कृति प्रधानता, चित्रकाव्य-योजना तथा पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति आदि के कारण इसे शास्त्रीय महाकाव्यों के अन्तर्गत स्थान देना भी न्यायोचित होगा । सनत्कुमारचरित्र का कथानक सुसंगठित और व्यवस्थित है। इसकी समस्त घटनायें परस्पर संबद्ध है, जिसके फलस्वरूप इसमें अविच्छिन्नता तथा धारावाहिकता बराबर बनी रहती है । यह महत्वपूर्ण महाकाव्य महोराध्याय विनय सागर द्वारा सम्पादित होकर, प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित हो चुका है ।
अभयदेवसूरि-कृत जयन्तविजय (1221 ई.) को विशुद्ध पौराणिक महाकाव्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सनत्कुमारचक्रिचरित्र की भांति इसमें भी शास्त्रीय रूढियों का व्यापक समावेश हुआ है। इसके 19 सर्गों में विक्रमसिंह के पुत्र ज न्त का जीवनवृत्त रोचक शैली में वर्णित है । जयन्तविजय में कथावस्तु का सामान्यतः सफल निर्वाह हुआ है । पन्द्रहवें सर्ग में दार्शनिक सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन और सतरहवें सर्ग में जयन्त और रतिसुन्दरी