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________________ 121 देवानन्द की रचना माघ के सुविख्यात काव्य शिशुपालवध की समस्यापूर्ति के रूप में हुई है। इसमें माघ के प्रथम सात सर्गों को ही समस्या पूर्ति का आधार बनाया गया है। अधिकत" माधकाव्य के पद्यों के चतुर्थ पाद को समस्या के रूप में ग्रहण करके अन्य तीन चरणों की रचना कवि ने स्वयं की है, किन्तु कहीं-कहीं दो अयथा तीन चरणों को लेकर भी समस्यापूर्ति की गई है । कुछ पद्यों के विभिन्न चरणों को लेकर अलगअलग श्लोक रचे गये हैं। माघ के 348 के चारों पादों के आधार पर मेघविजय ने चार स्वतन्त्र पद्य बनाये हैं (3/51-54) । कभी-कभी एक समस्या-पाद की पूर्ति चार पद्यों में की गई है । माघ के 369 के तृतीय चरण 'प्रायेण निष्कामति चक्रपाणी' का कवि ने चार पद्यों में प्रयोग किया है ( 31117-120) । कहीं-कहीं एक समस्या दोदो पद्यों का विषय बनी है। 'सहरितालसमाननवांशुकः' के आधार पर मेघविजय ने 4/27-28 को रचना की है। 'क्वचित कपिचयति चामीकरा:' की पूर्ति चर्य सर्ग के बत्तीसवें तथा तेतीसवें पद्य में की गयी है। मेघविजय ने एक ही पद्य में यथावत दो बार प्रयुक्त करके भी अपने रचना-कौशल का चमत्कार दिखाया है। 'ग्रामिष्ट मत्रुवासरपारम्, 'प्रभावनी केतनवैजयन्तीः' 'परितस्ततार रवेरसत्यवश्यम' को क्रमश: 6/7980,81 के पूर्वाधं तथा अपराध में प्रयक्त किया गया है.' द्यपि, दोनों भागों में, इनके अर्थ में, प्राकाश-पाताल का अन्तर है। भाषा का कुशल शिली हाने के कारण मेघविजय ने माघकाव्य से गृहोत समस्यामों का बहुधा सर्वथा पज्ञात तथा चमत्कारजनक अर्थ किया है। वांछित नवीन अर्थ निकालने के लिये कवि को भाषा के साथ मनमाना खिलवाड़ करना पडा है। कविन अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति अधिकतर नवीन पदच्छेद के द्वारा की है। अभिनव पदच्छेद की सहायता से वह ऐसे विचित्र अर्थ निकालन में सफल हपा है, जिनको कल्पना माघ ने भी कभी नहीं की होगी । इसमें उसे पूर्वचरण की पदावली से बहुत सायता मिली है । देवानन्द में माघ के कतिपय पद्य भी यथावत , अविकल ग्रहण किय गये है, किन्तु अकल्पनीय पदच्छेद से कवि ने उनसे चित्र विचित्र तथा चमत्कारी अर्थ निकाल है। देवानन्द के तृतीय सर्ग के प्रथम तीन पद्य माघ के उसी सर्ग के प्रथम पद्य है, पर उनके अर्थ में विराट अन्तर है। कवि के ईप्सित अर्थ को हृदयगम करना सर्वथा असम्भव होता यदि कवि ने इस प्रकार के पद्यों पर टिप्पणी लि बने की कल्पना न की होती । माघ काव्य से गहीत समस्याओं की सफल पूर्ति के लिये उसी कोटि का वस्तुतः उससे भी अधिक, गरु गम्भीर पाण्डित्य अपेक्षित है । माघ की भाति मेघविजय को सर्वतोमखी विद्वत्ता का परिचय तो उनके काव्य से नहीं मिलता क्योंकि देवानन्द की विषयवस्तु ऐसी है कि उसमें शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रकाशन का अधिक अवकाश नहीं है । किन्त अपने कथ्य को जिस प्रौढ भाषा तथा अलकत शैली में प्रस्तुत किया है, उससे स्पष्ट है कि मेघविजय चित्रमार्ग के सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी तथा माघ की शैली में कहीं भी अन्तर दिखाई नहीं देता। अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिय कवि ने भाषा का जो हृदयहीन उत्पीडन किया है, उससे जूझता पाठक झुझला उठता है तथा इस भाषायी जादूगरी के चक्रव्यूह में फंसकर वह हताश हो जाता है, परन्त रह शाब्दी-त्रीडा तथा भाषात्मक उछलकूद, उसके गन पाण्डित्य तथा भाषाधिकार के द्योतक है, इसम तनिक भी सन्देह नहीं है। मेघविजय का उददेश्य ही चित्रकाव्य से पाठक को चमत्कत करना है । मेघविजय का एक अन्य चित्रकाव्य गुप्तसन्धान नानार्थक काव्य-परम्परा का उत्कर्ष ह । नौ सर्गों के इस काब्य में जैन धर्म के पांच तीर्थकरों-ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्वनाथ, महावीर तथा पुरुषोत्तम राम एवं कृष्ण वासदेव का चरित श्लेषविधि से गम्फित है। काव्य में यद्यपि इन महापुरुषों के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण प्रकरणों का ही निवन्धन हमा
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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