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गृहस्थ धर्म में अणुवतों की व्यवस्था दी गई है, जहां यथाशक्य इन प्राचार-नियमों का पालन अभिप्रेत है। प्रतिमाधारी श्रावक वानप्रस्थाश्रमी की तरह और साध संन्यासाश्रमी की तरह माना जा सकता है।
सांस्कृतिक एकता की दष्टि से जैनधर्म का मल्यांकन करते समय यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि उसने सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रान्तीयतावाद, आदि सभी मतभेदों को त्याग कर राष्ट्र-देवता को बड़ी उदार और आदर की दृष्टि से देखा है । सामान्यतः धर्म के विकसित होने के कुछ विशिष्ट क्षेत्र होते हैं। उन्हीं दायरों में वह धर्म बन्धा हुया रहता है पर जैन धर्म इस दृष्टि से किसी जनपद या प्रान्त विशेष में ही बन्धा हुआ नहीं रहा। उसने भारत के किसी एक भाग विशेष को ही अपनी श्रद्धा का, साधना का और चिन्तना का क्षेत्र नहीं बनाया। वह सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानकर चला। धर्म का प्रचार करने वाले विभिन्न तीर्थकरों की जन्मभूमि, दीक्षास्थली, तपोभूमि, निर्वाणस्थली, आदि अलग-अलग रही हैं। भगवान महावीर विदेह (उत्तर विहार) में उत्पन्न हए तो उनका माधना क्षेत्र व निर्वाण स्थल मगध (दक्षिण विहार) रहा। तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म तो वाराणसी में हया पर उनका निर्वाण स्थल बना सम्मेतशिखर। प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में जन्मे, पर उनकी तपोभूमि रही कैलाश पर्वत और भगवान अरिष्टनेमि का कम व धर्म क्षेत्र रहा गुजरात-सौराष्ट्र । दक्षिण भारत में इसके प्रचार-प्रसार का सम्बन्ध भद्रबाहु से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि 300 ई. पूर्व के लगभग जब उत्तर भारत में द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ा तब उसके निवारणार्थ श्रतकेवली भद्रबाह, चन्द्रगुप्त मौर्य व अन्य मुनियों तथा श्रावकों के साथ कर्नाटक में जाकर कल्वधु (वर्तमान श्रवण बेलगोल) में बसे। लगता है यहां इसके पूर्व भी जैनधर्म का विशेष प्रभाव था। इसी कारण यहां भद्रबाहु को अनुकूलता रही। यहीं से भद्रबाहु ने अपने साथी मुनि विशाख' को तमिल प्रदेश भेजा। वर्ण-व्यवस्था के दुष्परिणाम से पीड़ित तमिलनाडू जैन धर्म के सर्वजाति समभाव सिद्धान्त से अत्यन्त प्रभावित हया और वहां उसका खब प्रचार-प्रसार हुआ। तिरुवल्लुवर का 'ति रुकूरल' तमिलवेद के रूप में समादत हया। इसमें 13 30 कुरलों के माध्यम से धर्म, अर्थ
और काम की सम्यक व्याख्या की गई है। ग्रान्ध्रप्रदेश भी जैन धर्म से प्रभावित रहा। प्रसिद्ध प्राचार्य कालक पैठन के राजा के गुरु थे। इस प्रकार देश की चप्पा-चप्पा भूमि इस धर्म की श्रद्धा और शक्ति का प्राधार बनी।
जैन धर्म की यह सांस्कृतिक एकता देशगतही नहीं रही। भाषा और साहित्य में भी उसने ममन्वय का यह प्रौदार्य प्रकट किया। जैनाचार्यों ने संस्कृत को ही नहीं अन्य सभी प्रचलित लोक-भाषाओं को अपनाकर उन्हें समचित सम्मान दिया। जहां-जहां भी वे गए वहां-वहां की भाषानों को चाहे वे प्रार्य-परिवार की हों, चाहे द्राविड परिवार की-अपने उपदेश और साहित्य का माध्यम बनाया। इसी उदार प्रवृत्ति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके हैं। ग्राज जब भाषा के नाम पर विवाद और मतभेद हैं तब ऐसे समय में जैन धर्म की यह उदार दृष्टि अभिनन्दनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
माहित्यिक समन्वय की ष्टि से तीर्थंकरों के अतिरिक्त राम और कृष्ण जैसे लोकप्रिय चरित्र-नायकों को जैन साहित्यकारों ने सम्मान का स्थान दिया। ये चरित्र जैनियों के अपने बन कर पाए हैं। यही नहीं, जो पात्र बन्यत्र घृणित और बीभत्स दृष्टि से चित्रित किए गए हैं वे भी यहां उचित सम्मान के अधिकारी बने हैं। इसका कारण शायद यह रहा कि जैन साहित्यकार दूसरों की भावनाओं को किसी प्रकार की टेन नहीं पहुंचाना चाहते थे। यही कारण है कि वासुदेव के शत्रुओं को भी प्रतिवासुदेव का उच्च पद दिया गया है। नाग, यक्ष प्रादि को भी अनार्य न मान कर तीर्थ करों का रक्षक माना है और उन्हें देवालयों में स्थान दिया है। कथा