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________________ (3) जैन दर्शन ने आत्म-विकास अर्थात मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नहीं बल्कि धर्म के साथ जोड़ा है। महावीर ने कहा-किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिंग में स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश में साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है। उसके लिये यह आवश्यक नहीं कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्म-संघ में ही दीक्षित हो। महावीर ने अश्रुत्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नहीं, परन्तु चित्त की निर्मलता के कारण, केवल ज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है। पन्द्रह प्रकार के सिद्धों में अन्य लिंग और प्रत्येक बूद्ध सिद्धों को जो किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपने ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं, सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है। वस्तुतः धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है। निरपेक्षता अर्थात् अपने लगाव और दूसरों के द्वेष भाव के परे रहने की स्थिति। इसी अर्थ में जैन दर्शन में धर्म की विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जब महावीर से पूछा गया कि आप जिसे नित्य,ध्रुव और शाश्वत धर्म कहते हैं वह कौनसा है ? तब उन्होंने कहाकिसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत करो, किसी को परिताप न दो और न किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण करो। इस द ष्टि से जैन धर्म के तत्व प्रकारान्तर से जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के ही तत्व हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ से ही अपने तत्कालीन संदर्भो में, सम्पृक्त रहा है। उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश में राजनैतिक क्षितिज तक ही सीमित नहीं रही है। उसने स्वतन्त्रता और समानता जैसे जनतान्त्रिक मल्यों को लोकभूमि में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे मूल्यवान भूत्र दिये हैं और वैयक्तिक तथा सामाजिक धरातल पर धर्मसिद्धांतों की मनोविज्ञान और समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय ही सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है। सांस्कृतिक समन्वय और भावनात्मक एकताः जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी बलवती बनाया । यह समन्वय विचार और आचारदोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है। विचार-समन्वय के लिये अनेकान्त दर्शन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते हए सांसारिक प्राणियों को बोध दिया--किसी बात को सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सच होगा पर दूसरे जो कहते हैं वह भी सच हो सकता है। इसलिये सुनते ही भड़को मत, वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो। आज संसार में जो तनाव और द्वन्द्व है वह दूसरों के दृष्टिकोण को न समझने या विपर्यय रूप से समझने के कारण है। अगर अनेकान्तवाद के आलोक में सभी व्यक्ति और राष्ट्र चिन्तन करने लग जायें तो झगड़े की जड़ ही न रहे। मानव-संस्कृति के रक्षण और प्रसार में जैन धर्म की यह देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म और गृहस्थ धर्म की व्यवस्था दी है। प्रवृति और निवृत्ति का सामंजस्य किया गया है। ज्ञान और क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का सन्तुलन इसीलिये आवश्यक माना गया है। मुनिधर्म के लिये महाव्रतों के परिपालन का विधान है। वहां सर्वथा-प्रकारेण हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह के त्याग की बात कही गई है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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