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________________ लोक-सेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालों को महावीर ने इस प्रकार चेतावनी दी है: असंविभागी प्रसंगहरुई अप्पमाणभोई । से तारिसए नाराहए वयमिणं ।। अर्थात--जो असंविभागी है-जीवन साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर दूसरों के प्रकृति प्रदत्त संविभाग को नकारता है, असंग्रहरुचि-जो अपने लिये ही संग्रह करके रखता है और दूसरों के लिये कुछ भी नहीं रखता, अप्रमाण भोजी-मर्यादा से अधिक भोजन एवं जीवन-साधनों का स्वयं उपभोग करता है, वह आराधक नहीं, विराधक है। 4. सार्वजनीनता.-स्वतन्त्रता, समानता और लोककल्याण का भाव सार्वजनीनता (धर्म निरपेक्षता) की भूमि में ही फल-फूल सकता है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म-विमुखता या धर्म-रहितता न होकर असाम्प्रदायिक भावना और सार्वजनीन समभाव से है। हमारे देश में विविध धर्म और धर्मानुयायी हैं। इन विविध धर्मों के अनुयायियों में पारस्परिक सौहार्द, सम्मान और ऐक्य की भावना बनी रहे, सब को अपने-अपने ढंग से उपासना करने और अपने-अपने धर्म का विकास करने का पूर्ण अवसर मिले तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ भेद भाव या पक्षपात न हो, इसी दृष्टि से धर्म निरपेक्षता हमारे संविधान का महत्वपूर्ण अंग बना है। धर्म निरपेक्षता की इस अर्थभूमि के अभाव में न स्वतन्त्रता टिक सकती है और न समानता और न लोक कल्याण की भावना पनप सकती है। जैन तीर्थंकरों ने सभ्यता के प्रारम्भ में ही शायद यह तथ्य हदयंगम कर लिया था। इसीलिये उनका सारा चिन्तन धर्म-निरपेक्षता अर्थात सार्वजनीन समभाव के रूप में ही चला। इस संबंध में निम्नलिखित तथ्य विशेष महत्वपूर्ण हैं:-- (1) जैन तीर्थंकरों ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नहीं किया। 'जैन' शब्द, बाद का शब्द है। इसे समण (श्रमण), अर्हत् और निर्ग्रन्थ धर्म कहा गया है। 'श्रमण' शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियों के उपशमन का परिचायक है। अर्हत् शब्द भी गुणवाचक है। जिसने पूर्ण योग्यता-पूर्णता प्राप्त करली है वह है-अर्हत् । जिसने सब प्रकार की ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया है वह है 'निर्ग्रन्थ'। जिन्होंने राग-द्वेष रूप शत्रुनों-पान्तरिक विकारों को जीत लिया है वे 'जिन' कहे गये हैं और उनके अनुयायी जैन। इस प्रकार जैन धर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त जीवन आदर्शों और सार्वजनीन भावों का प्रतीक है जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मौपम्य मैत्री-भाव निहित है। (2) जैन धर्म में जो नमस्कार मंत्र है, उसमें किसी तीर्थंकर, प्राचार्य या गुरु का नाम लेकर वन्दना नहीं की गई है। उसमें पंच परमेष्ठियों को नमन किया गया है-णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पायरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । अर्थात् जिन्होंने अपने अन्तरंग शन्नों पर विजय प्राप्त करली है, उन अरिहन्तों को नमस्कार हो, जो संसार के जन्ममरण के चक्र से शुद्ध परमात्मा बन गये हैं उन सिद्धों को नमस्कार हो, जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि प्राचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं, उन प्राचार्यों को नमस्कार हो, जो पागमादि ज्ञान के विशिष्ट ब्याख्याता हैं और जिनके सालिध्य में रहकर दूसरे अध्ययन करते हैं, उन उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में जितने भी सत्पुरुष हैं, उन सभी साधनों को नमस्कार हो, चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत या तीर्थ से संबंधित हो। कहना न होगा कि नमस्कार मंत्र का यह गुणनिष्ठ आधार जैन दर्शन की उदारचेता सार्वजनीन भावना का मेरुदण्ड है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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