SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 43 गुणपाल मुनि मनिये श्वेताम्बर परम्परा के नाइलगच्छीय वीरभद्रसुरि के शिष्य अथवा प्रशिष्य थे। जंबचरिय-1 उनकी श्रेष्ठ रचना है । ग्रन्थ को रचना कब को इसका संकेत ग्रन्थकार ने नहीं किया है, पर ग्रन्थ के सम्पादक मुनि श्री जिनविजयजी का यह अभिमत है कि ग्रन्थ ग्यारहवीं शताब्दी में या उससे पूर्व लिखा गया है। जैसलमेर के भण्डार से जो प्रति उपलब्ध हुई है वह प्रति 14 वीं शताब्दी के आसपास की लिखी हुई है। जम्बुचरियं की भाषा सरल और सुबोध है। सम्पूर्ण ग्रंथ गद्य-पद्य मिश्रित है। इस पर 'कुवलयमाला' ग्रन्थ का स्पष्ट प्रभाव है। यह एक ऐतिहासिक सत्य तथ्य है कि कुवलय-माला के रचयिता उदद्योतनसरिने सिद्धान्तों का अध्ययन वीरभद्र नाम के प्राचार्य के पास किया था। उन्होने वीरभद्र के लिए लिखा दिन्न जहिच्छ-फलो अवरों कप्परूक्खोव्व' । गण-पाल ने अपने गुरु प्रद्युम्नसूरि को वीरभद्र का शिष्य बतलाया ह। गुणपाल ने भी परिचिंतिय दिन्न फलो प्रासी सो कप्परुक्खो' ऐसा लिखा है। जो उद्द्योतनसूरि के वाक्य-प्रयोग के साथ मेल खाता है। इससे यह स्पष्ट है कि उद्द्योतनसूरि के सिद्धान्त-गुरु वीरभद्राचार्य और गुणपाल मुनि के प्रगुरु वीरभद्रसूरि ये दोनों एक ही व्यक्ति होंगे। यदि ऐसा ही है तो गुणपाल मुनि का अस्तित्व विक्रम की 9 वीं शताब्दी के आस-पास है। - गुणपाल मुनि की दूसरी रचना 'रिसिदता चरिय' है। जिसकी अपूण प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना में है। समयसुन्दर गणिः समयसुन्दर गणि ये एक वरिष्ठ मेघावी सन्त थे। तक, व्याकरण, साहित्य के ये गंभीर विद्वान थे उनकी अदभत प्रतिभा कोदेखकर बडे-बडे विद्वानों की अंगली भी दातों तले लग जाती थी। सं. 1649 की एक घटना है। बादशाह अकबर ने काशमीर पर विजय वैजयन्ती फहराने के लिए प्रस्थान किया। प्रस्थान के। शिष्ट विद्वानों को एक सभा हुई। समयसुन्दर जो ने उस समय विद्वानों के समक्ष एक अदभत ग्रन्थ उपस्थित किया। उस ग्रन्थ के सामने प्राज-दिन तक कोई भी ग्रन्थ ठहर नहीं सका है। "राजानो ददते सोख्यम्' इस संस्कृत वाक्य के आठ अक्षरहै और एक-एक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ किये गये हैं। बादशाह अकबर और सभी विद्वान् प्रतिभा के इस अनठे चमत्कार को देखकर नतमस्तक हो गये। अकबर काश्मीर विजय कर लोटा तो अनेक आचार्यों एवं साधनों का उसने सन्मान किया। उनमें एक समयसुन्दर जी भो थे, उन्हें वाचक पद प्रदान किया गया। उन्होंने विक्रम सं. 1686 (ई. सन् 1629) में गाथा सहस्रा ग्रन्थ का संग्रह किया। इस ग्रन्थ पर एक टिप्पण भोई पर उसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हो सका हैं। इसमें प्राचार्य के छतीस गण, साधनों केगण,जिनकल्पिक के उपकरण, यति-दिनचर्या, साढ पच्चीस आर्यदेश, ध्याता का स्वरुप, प्राणायाम, बत्तीस प्रकार के नाटक, सोलह श्रृंगार, शकुन और ज्योतिष आदि विषयों का सुन्दर संग्रह है। महानिशीथ, व्यवहारभाष्य, पुष्पमालावृत्ति प्रादि के साथ ही महाभारत, मनुस्मृति आदि संस्कृत के उद्धृत किये गये हैं। 1. सिंधी जैन ग्रन्थमाला.बम्बई से प्रकाशित ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy