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________________ राजस्थान का जैन लोक साहित्य - डा0 महेन्द्र भानावत राजस्थान के लोकसाहित्य की बड़ी विविध एवं व्यापक पृष्ठभूमि रही है । विविध धर्मो, विविध जातियों, विविध संप्रदायों तथा विविध संस्कारों, त्योहारों और तौर तरीकों की भूतियों से जुड़ा यहां का लोकमत अपनी विराट संस्कृति की जड़ों को गहरी किये पल्लवित पुष्पित है। इस संस्कृति में जैन लोकसाहित्य की अपनी विशिष्ट भूमिका रही है । यह साहित्य म लतः धार्मिक, प्राध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का एक ऐसा पनघट है जिसका पानी पीकर व्यक्ति अपने घर-मरघट तक को परिष्कृत, सात्विक और सांसारिक उलझनों से मुक्त बनाये रखता है । इस साहित्य के सहारे कितनी ही विधवाएं अपने वैधव्य को अभिशाप होने से बचाती हैं । कितने ही बेसहारा मन इसकी शरण को जिन्दगी का सबसे बड़ा सहारा मान अपनी नैया पार लगाते हैं । पापी मन प्रायश्चित करते हैं । अपनी ग्रन्थियों को खोलते हैं । कुन्ठानों को कालिख देते हैं । चित का चंचलपन दूर करते हैं । अपने हाथी मन को अंकुश देते हैं। घोड़े मन को लगाम लगाते हैरत में सुखपूर्वक अमरापुर का ग्रासन ग्रहण करते हैं । इच्छाओं को मारना और जीवन को संयमित करना इस साहित्य का मूल दर्शन है । यह दर्शन सपनों, बधावों, स्तवनो, भजनों, ढालों, व्यावलों, थोकड़ों, सिलोकों, कथाओं, गर्भ - चिन्तारणियों तथा तीर्थंकरों, गणधरों, साधु संतियों सम्बन्धी गीतों से संपूरित है । तीर्थंकर सम्बन्धी गीत मुख्यतः सपनों के रूप में प्रचलित हैं । इन सपनों में उनके गर्भधारण से लेकर उनके जन्म, उनके विविध संस्कार तथा उनके जीवन की मुख्य प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया होता है। धर्म-स्थानों के अलावा विवाह शादियों में चाक नूतने से लेकर शादी के दिन तक प्रति प्रातः भी ये सपने गाये जाते हैं । पर्युषण के दिनों में भी इन्हें विशेष रूप से गाया जाता है । गर्भावास में तीर्थकरों की माताओं को ग्राने वाले स्वपनों के कई गीत इस साहित्य प्रमुख विषय बने हुए हैं। एक सपने में बाल जन्म का हरख किस खूबी से उमड़ पड़ा है-आंगण प्रवरिया चुणावा । नारियलों से नींव भरावो । दाई बुलाओ जो तीर्थं कर को झेले । सोने की छुरी से उसका नारा मोराम्रो । रूपों की कुण्डियों में स्नान कराओ । रानी के प्रांगन सास बुलाओ जो बालक को पटरी झेले। जोशी बुलाओ जो नाम निकाले । ढोली बुलाओ जो दस दिन ढोल बजावे | सेवक को बुलाओ जो दस दिन झालर बजाये । भुआ बुलाओ जो मंगल गाये । चौक पुरा । सुहागिन से सूरज पुजाओ । कुम्हार बुलाओ जो कुंभ कलश लाये । देराणियां- जेठानियां बुलाओ जो भारती उतारे । हौज खुदाम्रो, झलमा पूजो । ढोलिया ढराम्रो । सुहागिन पोढ़ेगी। हिंगलू ढोराम्रो, पगल्या मांडेगी । केल रूपाओ उनके पास हाथी घोड़े मंड़ेंगे । सबके मन में कितना उल्लास और उछाह है । गीतों की गंगायें छलक रिखदेव के लिये केसर तीर्थकरों की पूजा के लिए दूर-दूर से यात्री उमड़ पड़ते हैं । पड़ती हैं । पूजा के विविध था और पूजापा सजाया जा रहा है । नेमिनाथ के लिए फूल, पारसनाथ के लिए केवड़ा, महावीर स्वामी के लिए नारियल तथा शांतिनाथ के लिए खारकों के थाल भरे जा रहे हैं । कब दरवाजा खुले, पट खुले और दर्शन हो । भगवान के पांव पूजने और मुंह देखने के लिए प्रतीक्षा पंक्ति लगी हुई है सामी कदकी ऊबी ने कदकी खरी रे दरवाजे, तोई नी खोल्या दरवाजा रे ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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