SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 370 सामो पांव पूगण दोनी मुख देखण दोनी म्है दूरां सं आया जी । ये सपने बड़े मंगल और कल्याण सूचक है। इनका गाना बैकुंठ पाना और नहीं गाना अजगर का अवतार होना है, तो फिर कौन सपने गाना नहीं चाहेंगी? गाने वाली को चड़ा-चंदड़ी यानी सूहाग-सौभाग्य की प्राप्ति और जोड़ने वाली को झूलता हुआ पुत्र, रोग-शोक से मुवित और ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय तक के पाठों कर्मों से छुटकारा । __कर्म को लेकर हमारे यहां जीवन की जड़ें बहुत खंखेरी गई हैं। मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। अच्छे काम का अच्छा फल और बुरे काम का बुरा फल । इस धारणा से हर व्यक्ति अपनी जिन्दगानी को बुरे फलों से बिगाड़ना नहीं चाहता। प्रति दिन उसके हाथों अच्छा काम हो, वह यही आशा लिए उठता है और इसी आशा में बिस्तरा पकड़ता है। इसलिए वह अपना आत्मचिन्तन करता है। गलत किये हुए पर प्रायश्चित्त करता है और आगे के जीवन का सुधारने का प्रण दोहराता है। आत्मा सो परमात्मा। इसलिए वह अपनी आत्मा को अपवित्र होने से बचाता है। प्रात्मा को लेकर ऐसे कई एक चौक प्रचलित है जिनमें अच्छी करणी के रूप में प्रात्मा को निर्मल, निरोग और निष्पाप रहने को सचेत, सजग किया गया है। इन चौकों के अतिरिक्त थोकडों में भी इसी प्रकार की,जीवन को धिककारने और प्रात्मानों को फटकारने की भावना भरी मिलती है। प्रात्मनिन्दा एवं भर्त्सना के साथ-साथ सांसारिक मोहमाया, रागद्वेष एवं कषाय आदि में निलिप्त जीवन को झकझोरते हुए उसे सवत्ति की ओर प्रेरित किया जाता है। इसीलिए मरणासन्न व्यक्ति को मृत्य से पूर्व भी ये थोकड़े सूनाये जाते हैं ताकि वह अपने जीवन को तोलता हुआ पापों का प्रायश्चित करे। ये थोकड़े मुख्यतः जीवन के कृष्णपक्ष को उद्घाटित कर उसे शुक्लजीवी बनाते हैं। एक उदाहरण देखिये ___ ज्यू समंदर में हिलोरा उछरे छ ज्यू थारे तिरसणा रूपी हिलोरा उछरे छ। अरे जीव थं करणी तो करे छ पर सूना मन संकरे छै। धीरप मन संकरसी तो थारे लखे लागसी । देखो देखो भरत महाराज की राज, रीति रमणीक, गेमणीक सोभाइमान बेइरी छ। जणा कई जाण्यो छ के धरकारपणों अणीराज ने, धरकारपणों अणी पाटने, धरकारपणों अणी चकरवती पदवी ने। असी चिन्तावणा करतां करता भरत म्हाराज केवल ग्यान दरसन पाया। अस्यो थारे पण उदे पावसी ? थारे कणस् उदे ग्रासी रे बापड़ा? करोध मान माया लोभ री चकरी ने पटरी पार । अकूल विकूल पणो थारे मरे न थी। करोध, मान, माया, लोभ, राग दवेस जगजगारमान हो रयो छ। थारी समाई तो या छ ने वा छ। अर्थात् ज्यों समुद्र की लहरें उछाल खाती है उसी तरह तुम्हारे तृष्णारूपी हिलोरें उछाल खा रही हैं। अरे जीव त कर्म तो करता है पर खाली मन से करता है। धैर्य से करेगा तो तो अपना लक्ष्य हाथ लगेगा। देखो महाराज भरत की राजरीति शोभित हो रही है जिन्होंने जाना कि धिक्कार है इस राजपाट को, घिक्कार है चक्रवती पदवी को। ऐसी चिन्तना करते भरत महाराज केवल ज्ञान केवल दर्शन को प्राप्त हो गये। ऐसा भाग्य तुम्हारे भी उदित होगा? तुम्हारे कैसे उदित होगा ! क्रोध, मान, माया, लोभ की चकरी का जीवन पटरी से पार लगा। आकूल-व्याकुलता तुमसे नहीं छूटती। क्रोध, मान, माया, लोभ राग, द्वेष की जगमगाहट हो रही है। तेरी सामयिक, कमाई तो यह है, यही है। , ये थोकड़े हमारे इस भव के ही नहीं अपितु परभव, भव-भव के चिकित्मक हैं। इनसे काया, कंचन बनती है। हमारा मन यदि अचंगा है तो काया चंगी कैसे होगी ? मन की उद्दाम
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy