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________________ 371 वासनाएं, अनन्त लालसाएं और प्रखूट तृष्णाएं जब तक काबू में नहीं पायेगी तब तक प्रात्मा का मैल कैसे कटेगा? विविध कथा-पाख्यानों और दृष्टान्तों के आधार पर इन थोकड़ों को बणगट मानव जीवन के शैक्षिक सांस्कृतिक पक्ष को मजबूती से पाटती है। गर्भ चिन्तारणियों में गर्भस्थ शिश की चिन्तना के साथ-साथ मानव जीवन को समतावान बनाने को सोख भी रहती है। ये गर्भवती महिलाओं को सुनाई जाती हैं ताकि गर्भ में -ही गर्भस्थ शिशु जोव योनि के स्वरूप, कर्नफल, सांसारिक मोहजाल, रोग-भोग तथा सुख-दुःख का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर जीव धारण करे और मानव जीवन को सार्थक करता हा मरण को ममताविहीन रूप में वरण करे। इस दष्टि से ये चिन्तारणियां जीव योनि का गढ़ दर्शन लिए होती हैं। मरणासन्न व्यक्ति को भी ये चिन्तारणियां सुनाई जाती हैं ताकि वह अपने को सांसारिकताओं से मुक्त समझता या देह त्यागे और आगे कोई अच्छा जन्म प्राप्त करे। इसके अनुसार जीव जन्म धारण करता है, मरता है, पुनः-पुनः जीता है और इस प्रकार चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है । मनुष्य अकेला पाता है और अकेला जाता है। साथ न कुछ लाता है और न ले जाता है अतः बार-बार उसे अच्छे कर्म करने के लिए सचेत किया जाता है। एक पगल्या देखिए-- रतनां रा प्याला ने सोना री थाल । मंग मिठाई ने चावल दाल, भोजन भल भल भांतरा ।। गंगा जल पाणी दीधो रे ढार, वस्तु मंगावो ने तुरत त्यार, कमी ए नहीं किण, बात री॥ बड़ा बड़ा होता जी राणा ने राव, सेठ सेनापति ने उमराव, खाता में नहीं राखता ।। जी नर भोगता सुख भरपूर, देख तां देखता होयग्या धूर, देखों रे गत संसार री ।। करे गरब जसी होसी जी बास, देखतां देखतां गया रे विनास, यूं चेते उचेते तो मानवी।। किसी स्थान पर साधु संतों का आगमन बड़ा आह्लादकारी होता है, तब पूरा श्रावकश्राविका समुदाय उमड़ पड़ता है। इस दिन की खुशी का पार नहीं, जसे सोने और रत्नों का सूरज उदित हो पाया हो-- आज सोना रो सुरज उगियो, प्राज रत्नां रो सूरज उगियो, आज रो गोइरो लागे हगेमगे, म्हारासा प्रो लागे दीपतां ॥ कम और केसर के पगल्ये महाराज श्री का पदार्पण । सारा गांव लल-लल पांव लगने के लिए उमड़ पड़ा है। इनके दर्शनों से सारे पाप धुल गए हैं। बधावे पर बधावे गाए जा रहे हैं । भगवान महावीर के बाल जीवन के गीतों में उन्हें नहाने, कपड़े पहनाने तथा पालने में झलाने के बड़े रोचक वर्णन मिलते हैं। महावीर के जरी का रुमाल, मखमल का मागा और हीरे-मोती से जड़ी टोपी शोभित है। उनका पालना सोने की सांकल कड़ियों वाला, रत्नों से जड़ा, रेशम की डोर । उनके पांवों में झांझरिये वन-खनाते हुए, ठुमक ठुमक ठुमकती उनकी चाल और माता त्रिशला के उनके साथ बने नाना स्वप्न, कितनी रंगीन छटा और दश्यावली आंखों के सामने थिरक उठती है। माता त्रिशला तो भाग्यशाली है ही पर इन गीतों को गाने- सुनाने वाले भी अपने को कितना भाग्यवान समझते हैं, यह कल्पना सहज ही की जा सकती है। तीर्थकरों से सम्बन्धित शिलोकों का भी इधर विशेष प्रचलन रहा है। इनमें मुख्यत: देव, वासुपूज्य, नेमिनाथ. पार्श्वनाथ, शांतिनाथ के शिलोकों की संख्या अधिक है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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