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तीर्थकरों के अतिरिक्त रामलखन, कृष्ण, बालाजी, गणपति एवं मुख्य प्रमुख सतियों के शिलोके भी मिलते हैं । पर्युषण के दिनों में कई तरह के गीत गाये जाते हैं । औरतें तीर्थंकरों से सम्बन्धित गीत गाती हुई मन्दिर जाती हैं, पूजा करती हैं और हरख मनाती हैं । किसी के बच्चा नहीं होने पर पत्नि पति सजोड़े उपवास करते हैं । धर्म के प्रताप से उनके कूख 'चलने लगती है । तब हाथ पावों में मेंहदी दी जाती है । नारियल या खड़िया बांटी जाती है । पारण के दिन सपने गवाये जाते हैं । संवत्सरी को प्रत्येक व्यक्ति उपवास करता है। कहावत ' थान ने बुडा ने नहीं धान" छोटे-छोटे बच्चे तक इस दिन स्तनपान नहीं करते हैं और बूढ़े भी भूख रहते हैं ।
लोकसाहित्य के इन विविध रूपों में कथा-कहानियों की संख्या सर्वाधिक है । इनकी आत्मा धार्मिक ताने-बाने से गुंथी हुई होती है । ये कहानियां सुखांत होती हैं । अधिकतर कहानियों की समाप्ति संयम मार्ग धारण कर दीक्षित होने में होती है । ये कहानियां गद्य, पद्य अथवा दोनों का संयुक्त रूप लिये होती हैं । इनमें शिक्षात्मक अंश भी खासा रहता है । जीवन निर्माण की दिशा में ये कहानियां बड़ी प्रेरक, शिक्षात्मक तथा बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई हैं । गांवों में जहां मनोरंजन के कोई साधन नहीं होते वहां इन कहानियों का वाचन - कथन कइयों को सद्माचरण की ओर प्रेरित करता है ।
ढालों में भग, भरत, मेघकुमार, पवनकुमार, रावण, विजयासेठ, जम्बूस्वामी की ढालों का विशेष प्रचलन है । ये ढालें गद्य-पद्य मिश्रित सुन्दर संवाद लिए होती हैं । यहां रावण की ढाल का सीता मन्दोधर संवाद द्रष्टव्य है-
सीता जी सूं मिलवा मंदोधर राणी आई, संग में सहेल्यां लाई ।
राजा की राणी आई ||टेर ||
मंदों -- किणरे घर थं जाई उपणी किणरे घर परणाई ? ओ सीता किण रे घर परणाई ?
मंदों-
कई थारो प्रीतम हुवो बावलो मोरे पिया संग चली आई, अरे सीता राणा की राणी आई ॥
सीता - जनकराय घर जाय उपणी दसरथ घर परणाई,
प्रो मंदोधर दसरथ घर परणाई ।
नहीं म्हारो प्रीतम हुवो बावलो, सरन सोना री लंका देखण आई, प्रो मंदोधर राजा की राणी आई ॥
त
तो कहीजै सत की सीता यां कैसे चली आई,
कई थ प्रीतम वन में छोड़ी मोरे पिया संग चली आई, ओ सीता राजा की राणी आई ॥
सीता--म्हें तो कही जूं सत की सीता ऐसे ही चली आई,
नहीं म्हारा प्रीतम वन में छोड़ी थने रंडापो देवण श्राई, यो मंदोधर राजा की राणी ग्राई ॥
इन ढालों की रागें बड़ी मीठी तथा मोहक होती हैं । इनके आधार पर नृत्य नाटक भी मंत्रित किए जा सकते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह साहित्य न केवल जनों के लिए अपितु आम लोगों के लिए भी उतना ही उपयोगी और आत्मशुद्धि मूलक है। जैन संप्रदाय और जैन वर्ग विशेष साहित्य होते हुए भी यह आम जनजीवन के सुख और कल्याण का वाहक है ।