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________________ राजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालय --डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल राजस्थान रजपूती आन बान का प्रदेश है। यह वीर भूमि है जहां देश पर अथवा मातृभूमि पर बलिदान होने में यहां के निवासियों ने सदा ही गौरव माना है। मुस्लिम शासन में म सलमानों से जितना यहां के वीरों ने लोहा लिया था, उतना किसी प्रदेश वाले नहीं ले सके। यहां की धरती महाराणा प्रताप की गौरव गाथा से अलंकृत है। महाराजा हम्मीर के शौर्य, पराक्रम एवं बहादुरी से कृतकृत्य है और यहां के असंख्य वीर योद्धाओं के खून से इस प्रदेश का चप्पा-चप्पा अभिसिक्त है लेकिन वीर भूमि के साथ-साथ राजस्थान कर्मभूमि भी रहा है। एक ओर यहां के वीर पुत्रों ने यदि मातृभूमि के लिए अपने जीवन को पाहुति दी तो दूसरी ओर यहां के वणिक् समाज ने देश को साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संपत्ति को भी सुरक्षित ही नहीं रखा किन्तु उसके प्रचार प्रसार में भी अपना अपूर्व योगदान दिया और इस दृष्टि से भी राजस्थान का महत्व कम नहीं है। जैसे चित्तौड़, रणथम्भौर, अजमेर जैसे दुर्गों के दर्शन करते ही हमारी भुजाएं फड़कने लगती हैं उसी तरह जैसलमेर, नागौर, अजमेर एवं बीकानेर, जयपुर के ग्रन्थ संग्रहालयों में सुरक्षित साहित्यिक धरोहर के दर्शन करके हम अपने भाग्य की सराहना करने लगते हैं। आज अकेले राजस्थान में जितनी हस्तलिखित पाण्डुलिपियां मिलती हैं उतनी देश के किसी अन्य प्रदेश में नहीं मिलती। यह सब राजस्थानवासियों के युगों की साधना का फल है। राजस्थान में जैन एवं जैनेतर शास्त्र संग्रहालयों में पांच लाख से भी अधिक पाण्डुलिपियां है। जिनके केन्द्र है : जैसलमेर, जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, भरतपुर, बून्दी के ग्रन्थागार जिनमें पाण्डुलिपियों के रूप में साक्षात् सरस्वती एवं जिनवाणी के दर्शन होते हैं। अनुप संस्कृत लायब्ररी बीकानेर, राजस्थान पुरातत्व मन्दिर जोधपुर, जयपुर महाराजा का पोथीखाना एवं उदयपुरादि के महाराजाओं के निजी संग्रह में 11-2 लाख से कम ग्रन्थ नहीं होंगे, जिनमें सारी भारतीय विद्या छिपी पड़ी है और वह हमारे प्राचार्यों के असोम ज्ञान का एक जीता जागता उदाहरण है। राजस्थान में जैन ग्रन्थ संग्रहालयों की जितनी अधिक संख्या है उतनी गुजरात को छोड़ कर देश के किसी अन्य प्रदेश में नहीं है। लेखक द्वारा अब तक किए गए सर्वे के अनुसार राजस्थान में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायों के संग्रहालयों में ढाई-तीन लाख पाण्डुलिपियों से कम संख्या नहीं होगी। इनमें से 1-1 लाख पाण्डुलिपियां दिगम्बर भण्डारों में एवं इतनी ही पाण्डुलिपियां श्वेताम्बर भण्डारों में मिलेगी। ये पाण्डुलिपियां मुख्यतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के ग्रन्थों की हैं और 10 वीं शताब्दी से लेकर 20 वीं शताब्दी तक की हैं । जैनाचार्यों, साधुओं, भट्टारकों एवं पंडितों ने अपने ग्रन्थ संग्रहालयों को साहित्य संग्रह की दृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी बनाने का सदैव प्रयास किया है। जहां कहीं से भी कोई हस्तलिखित ग्रन्थ मिल गया चाहे वह फिर किसी धर्म का हो अथवा विषय का उसे भण्डार में सुरक्षित रूप से विराजमान कर दिया गया या फिर उसकी प्रतिलिपि करवा कर संग्रहीत करने का प्रयास किया गया। इसलिए राजस्थान के ये जैन ग्रन्थ भण्डार साहित्यिक उपयोगिता को दष्टि से देश के महत्वपूर्ण संग्रहालय है। जैनों ने इन भण्डारों की रक्षा करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी और मगलों एवं शवों के अाक्रमण के समय में अपने जीवन की पाहुति देकर भी इन भण्डारों की सुरक्षा की थी। यही कारण है राज्याश्रय विहीन होने पर भी ये अब तक सुरक्षित रह सके और देश की महत्वपूर्ण सामग्री नष्ट होने से बचायी जा सकी ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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