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________________ 413 कर्त्तरित ग्रन्थ:--कागज को केवल अक्षराकृति में काटकर बिना स्याही के आलेखित ग्रन्थों में मात्र एक 'गीतगोविन्द' की प्रति बडौदा के गायकवाड ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट में है। बाकी फुटकर पत्र एवं चित्रादि पर्याप्त पाये जाते हैं । मिश्रिताक्षरी:-छोटे-बड़े मिश्रित अक्षरों की प्रतियों का परिचय वर्णन टबा, बालावबोध की एवं सपर्याय प्रतियों में चारुतया परिलक्षित होता है । ____गुटकाकार ग्रन्थ:-इनका एक माप नहीं होता। ये छोटे-बड़े सभी आकार-प्रकार के पाये जाते हैं। पोथिये, गटके ग्रादि बीच में सिलाई किए हए, जज सिलाई वाले भी मिलते हैं। बराबर पन्नों को काटकर सिलाई करने से आगे से तीखे और अवशिष्ट एक से होते हैं। उनकी जिल्दें भी कलापूर्ण, सुरक्षित और मखमल, छींट, किमख्वाप-जरी आदि की होती हैं। कुछ गुटके सिलाई करके काटे हुए आजकल के ग्रन्थों की भांति मिलते हैं। माप में वें दफ्तर की भांति बड़े-बड़े फलस्केप साइज के, डिमाई साइज के वक्राउन व उससे छोटे लघ और लघतर माप के गुटके प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। उनमें रास, भास, स्तवन, सज्झाय, प्रतिक्रमण, प्रकरण संग्रहादि अनेक प्रकार के संग्रह होते हैं। हमारे संग्रह में ऐसे गुटके सैकड़ों की संख्या में हैं जो सोलहवीं शताब्दी से बीसवीं शती तक के लिखे हुए हैं। ___ पुस्तक संशोधन हस्तलिखित ग्रन्थों में प्रति से प्रति की नकल की जाती थी। ऊपर वाली प्रति यदि अशुद्ध होती तो उस बिना संशोधित प्रति से नकल करने वाला भाषा और लिपि का अनभिज्ञ लेखक भ्रान्त परम्परा और भूलों की अभिवृद्धि करने वाला ही होता। फलस्वरूप ग्रन्थ में पाठान्तर, पाठभेद का प्राचर्य हाता जाता और कई पाठ तो अशुद्ध लेखकों की कृपा से ग्रन्थकार के प्राशय से बहुत दूर चले जाते थे। एक जैसी प्राचीन लिपि और मोड़ के भेद से, भाषा व विषय की अनभिज्ञता से जो भ्रान्तियां नजर आती हैं उनके कुछ कारण अक्षरों की मोड़ साम्य व अन्य भ्रान्तियां हैं यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं: 1. लिपिभ्रमः-- खर व स्व गरा घप्प व थ प्य चवठध to ho If two म स राग व बत ह इ त्त तू था थ्य पा प्य सा स्य षा ष्य ग्र ग्गग्ज त्त न च्च थ जज्ञ जज टठद ड र म त व ध व न त व नु तु प य ए वु तु प्प प्य थ घ ज्ज व्व द्य सूस्त स्वम् त्थ च्छ कृक्ष त्व च न प्रा था टाय व थ एय गा एम एप य ऐ पेये क्व क कुक्ष प्त पू पृ सु मु ष्ठ ष्व ष्ट षब्द त्म त्स ता त्य कू क्त क भ सम य ध
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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