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________________ 412 जाने लगे तो त्रिपाठ या पंचपाठादि विभागीय लेखन प्रारम्भ हुआ । इससे एक ही प्रति में टीका आदि पढ़ने की सुगमता हो गई । टबा या बालावबोध ली : - त्रिपाठ, पंचपाठ से भिन्न टबा लिखने की शैली में एक-एक पंक्ति के मूल बड़े अक्षरों के ऊपर छोटे अक्षरों में विवेचन, टबा व थोड़े से बड़े अक्षरों के ऊपर नीचे विशद विवेचन छोटे अक्षरों में लिखा जाता था । श्रानन्दघन चौबीसी बालावबोधादि की कई प्रतियां इसी शैली की उपलब्ध है। विभागीय ( कालम) पुस्तक, कुछ सुक्ष्माक्षरी आदि दो विभाग में लिखी हुई पुस्तकें मिलती हैं तथा कई प्रतियों में नामावली सूची, बालावबोध आदि लिखने में सुविधानुसार कालम बनाकर के लिखे हुए कागज के ग्रन्थ उपलब्ध हैं । चित्र पुस्तक: - यहां चित्र पुस्तक का ग्राशय सचित्र पुस्तक से नहीं पर यह वह विद्या है। जिससे लेखनकला की खूबी से इस प्रकार जगह छोड़कर अक्षर लेखन होता है जिससे चौपट, वज्र, स्वस्तिक, छत्र, फूल आदि विविध आकृतियां उभर आती हैं और व्यक्ति का नाम भी चित्र रूप में परिलक्षित हो जाता है । कभी-कभी यह लेखन लाल स्याही से लिखा होने से लेखन कला स्वयं बोल उठती है । हांसिया और मध्य भाग में जहां छिद्र की जगह रखने की ताड़पत्त्रीय प्रथा थी वहां विविध फूल आदि िित्रत होते । स्वर्णाक्षरी-रौप्याक्षरा ग्रन्थः- आगे बतायी हुई विधि के अनुसार स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी और गंगा-जमनी ग्रन्थ लेखन के लिये इस स्याही का प्रयोग होता । ग्रन्थों को विशेष चमकदार दिखाने के लिए कागज के पत्रों की पृष्ठभूमि ( बैकग्राउण्ड) लाल, काला ग्रासमानी, जामुनी यादि गहरे रंग से रंग कर अकीक, कमाटी, कोडा आदि से घोटकर मुलायम, पालिसदार बना लिया जाता था । फिर पूर्वोल्लिखित सोने चांदी के वर्क चूर्ण को धव के गोंद के पानी के साथ तैयार की हुई स्याही से ग्रन्थ लिखा जाता था । लिखावट सूख जाने पर अकीक आदि की प्रोपणी से घोटकर प्रोपदार बना लिए जाते थे । इन पत्रों के बीच में व हांसिये में विविध मनोरम चित्र हंसपवित, गज पंक्ति श्रादि से अलंकृत करके अद्वितीय नयनाभिराम बना दिया जाता था । स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी स्याही की लिखी हुई ताडपत्रीय पुस्तकें अब एक भी प्राप्त नहीं हैं पर महाराजा कुमारपाल और वस्तुपाल महामात्य ने अनेक स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ लिखाए थे वर्तमान में प्राप्त जिसका उल्लेख कुमारपाल प्रवन्ध व उपदेशतरंगिणी में पाया जाता है । स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ पन्द्रहवीं शती से मिलते हैं । रौप्याक्षरी उसके परवर्ती काल से मिलते हैं । स्वर्णाक्षरी प्रतियां कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा की प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं और क्वचित् भगवती सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, नवस्मरण, अध्यात्मगीता, शालिभद्ररास एवं स्तोत्रादि भी पाये जाते हैं । सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थः - तापत्त्रीय युग में सूक्ष्माक्षरी प्रतियां नहीं मिलतीं, पर कागज के ग्रन्थ लेखन में सूक्ष्म प्रक्षरों का त्रिपाठ, पंचपाठ आदि लेखन में पर्याप्त प्रयोग हुआ। साधुनों को बिहार में अधिक भार उठाना न पड़े इस दृष्टिकोण से भी उसका प्रचलन उपयोगी था । ज्ञान भण्डारों में कई एक सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थ पाये जाते हैं । यो केवल एक पत्र में दशवेकालिकादि आगम लिखे मिलते हैं । तरापंथी साधुयों ने तथा कुछ कलाकारों ने सूक्ष्माक्षर में उल्लेखनीय कीर्तिमान कायम किया है, पर वे पठन-पाठन में उपयोगी न होकर प्रदर्शनी योग्य मात्र हैं । स्थूलाक्षरी ग्रन्थः- पठन-पाठन के सुविधार्थं विशेष कर सम्वत्सरी के दिन कल्पसूत्र मूल का पाठ संघ के समक्ष बांचने के लिये स्थूलाक्षरी ग्रन्थ लिखे जाते थे । पर्याप्त विकास दृष्टिगोचर होता कागज युग में इसका I
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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