SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 411 Antar at साइज एक होने से सभी पत्तों में एक जैसी लकीरें पंक्तियां श्राती थीं। जहां विभागीय परिसमाप्ति होती वहां लाल स्याही से विराम चिन्ह एवं प्रारम्भ में ||60|| श्रादि तथा अंत में ॥ छ ॥ की पद्धति ताडपत्रीय लेखन के अनुसार ही प्रचलित थी । पुष्पिका संवृत आदि पर ध्यान श्राकर्षण करने के लिये लाल स्याही से अथवा जैसे लाल पैंसिल फिरा दी जाती है वैसे गेरु यदि से रंग दिया जाता था । प्राचीन लेखन वैशिष्ट्यः ग्रंथ-लेखन में जहां वाक्यार्थ या सम्बन्ध पूर्ण होता था वहां पूर्ण विराम, दोहरा पूर्ण विराम एवं अवांतर विषय अवतरण आदि की परिसमाप्ति पर || छ || लिखा जाता था एवं श्लोकांक भी इसी प्रकार लिखा जाता था । विशिष्ट ग्रन्थों में मूलग्रन्थ के विषय को स्पष्ट करने वाले यन्त्र, चिन्ह, लिखने के साथ-साथ श्लोक संख्या, गाथा संख्या, ग्रथांग्रंथ, प्रशस्ति प्रादि लिखी जाती थी। कुछ अविवेकी लेखक इन्हें न लिखकर ग्रन्थ के महत्व और वैशिष्ट्य को कम कर देते थे ! ताडपत्रीय ग्रन्थों के चित्र व टीके आदि के अतिरिक्त केवल काली स्याही ही व्यवहृत होती थी । जबकि कागज के ग्रन्थों के लेखन में काली के अतिरिक्त सुनहरी, रूपहली और लाल स्याही का प्रयोग छूट से हुआ है । सुनहरी, रूपहली स्याही में समग्र ग्रन्थ लिखे गए हैं, वैसे लाल रंग का प्रयोग पूरे ग्रन्थ में न होकर विशिष्ट स्थान, पुष्पिका, ग्रन्थाग्र, उक्तं च, तथाहि, पूर्ण विराम आदि में हुआ है । पर पत्नों की पृष्ठभमि में लाल, नीला, हरा आदि सभी रंगों से रंग कर उस पर अन्य रंगों का प्रयोग हुआ है । पुस्तक लेखन के प्रकार: पुस्तकों के बाह्य प्रकार को लक्षित करके आगे गंडी, कच्छपी, मुष्टि आदि पुस्तकों के प्रकार बतलाए गए हैं पर जब कागज के ग्रन्थ लिखे जाने लगे तो उनकी लेखन पद्धति व आभ्यन्तरिक स्वरूप में पर्याप्त विविधता आ गई थी । कागज पर लिखे ग्रन्थ, त्रिपाठ, पंचपाठ, टब्बा, बालावबोध शैली, दो विभागी ( कालम), सूड़ ( Running ) लेखन, चित्रपुस्तक, स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी, स्थूलाक्षरी, मिश्रिताक्षरी, पौथियाकार, गुटकाकार यदि अनेक विधाओं के संप्राप्त हैं । त्रिपाठ या त्रिपाट: ग्रन्थ के मध्य में बड़े अक्षर व ऊपर नीचे उसके विवेचन में टीका टबा आदि सूक्ष्माक्षरों की पंक्तियां लिखी गई हों वह त्रिपाठ या त्रिपाट ग्रन्थ कहलाता है । पंचपाठ या पंचपाट:- जिस ग्रन्थ के बीच में मूलपाठ व चारों ओर के बड़े बोर्ड र हांसिया में विवेचन, टीका, टबादि लिखा हो, अर्थात्, लेखन पांच विभागों में हुआ हो वह पंचपाठ या पंचपाट ग्रन्थ कहलाता है । सूड़ या सूढ़ :- जो ग्रन्थ मूल टीका आदि के विभाग बिना सीधा लिखा जाता हो वह सूड़ या सूठ ( Running ) लेखन कहलाता है । प्राचीन ग्रन्थ मूल, टीका आदि अलग-अलग लिखे जाते थे तब ताडपत्रीय ग्रन्थों में ऐसे कोई विभाग नहीं थे, जब मूल के साथ टीका, चूर्णि, निर्युक्ति, भाष्य, बालावबोध आदि साथ में लिखे
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy