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यहां दी गई शब्द सूची में कितनी ही वैकल्पिक हैं, अतः किस प्रसंग प्रयोग में कौन सा चालू अंक लेना है यह विचारणीय रहता है ।
रंध्र, ख और छिद्र का उपयोग शून्य के लिए हुआ है और नौ के लिए भी हुआ है। गो एक के लिए व नौ के लिए भी व्यवह त हुआ है । पक्ष दो के लिए व पन्द्रह के लिये भी व्यवहृत हुआ है । इसी प्रकार श्रुति दो के लिये व चार के लिये, लोक और भुवन तीन, सात और चौदह के लिए, गुण शब्द तोन और छ: के लिए, तत्व तीन, पांच, नौ और पच्चीस के लिए, समुद्र वाचक शब्द चार और सात के लिए तथा विश्व तीन, तेरह और चौहद के लिए व्यवहृत देखने में आते हैं।
पुस्तक लेखन
ताडपत्रीय ग्रन्थ:-छोटे साइज के ताडपत्त्रीय ग्रन्थ को दो विभाग ( कॉलम) में एवं लम्बे पत्रों पर तीन कालम में लिखा जाता था । विभाग के उभय पक्ष में एक डेढ इन्च का हांसिया (मार्जिन) रखा जाता था। बीच के हांसिया में छिद्र करके डोरा पिरोया जाता था ताकि पत्र अस्त व्यस्त न हो । पत्र के दाहिनी ओर अक्षरात्मक पत्रांक एवं बायीं तरफ अंकात्मक पत्रांक लिखे जाते थे । कितनी ही प्रतियों में उभय पक्ष में एक ही प्रकार के अंक लिखे मिलते हैं । बीच में छिद्र करने के स्थान में तथा कई प्रतियों में किनारे के हांसिये में भी हिंगुली का बड़ा टीका (अंगूठे से किया जाता था । विभागीय लेख के उभय पक्ष में सुन्दरता के लिए बोर्डर या दो तीन खड़ी लकीरें खींच दी जाती थीं । ताडपत्र के पत्ते चौड़े-संकड़े होते थे, अतः कहीं अधिक व कहीं कम पंक्तियां सम विषम रूप में हो जाती थीं । लिखते-लिखते जहां पत्र संकडा हो जाता था, पंक्ति को शेष करके चन्द्र (स्टार) आदि प्रकृति चिन्हित कर दी जाती थी । अन्त और प्रारम्भ जहां से होता वैसा ही चिन्ह संकेत सम्बन्ध मिलाने में सहायक होता था ।
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पुस्तक लेखन प्रारम्भ में 'दो पाई, भले मीडा' के बाद जिन, गणधर, गुरु, इष्टदेव, सरस्वती आदि के सूचक नमस्कार लिखा जाता और जहां श्रुतस्कन्ध, सर्ग, खण्ड, लभक, उच्छ्वास आदि की पूर्णाहूति होती वहां ॥ छ ॥ एवं समाप्ति सूचक अन्य चिन्ह लिखकर कुछ खाली जगह छोड़ कर उसी प्रकार नमस्कारादि सह आगे का विभाग चालू हो जाता। कहीं-कहीं ग्रन्थ के विभाग के शेष में या ग्रन्थ पूर्णाहूति में चक्र, कमल, कलशादि को प्राकृति बनाई जाती थी । बीच-बीच में जहां कहीं गाथा का टोका, भाष्य, चूणि शेष होने के अन्त में भी ॥छ । लिख दिया जाता था । किन्तु रिक्त स्थान नहीं छोड़ा जाता था ।
कागज के ग्रन्थ :-- प्रारम्भ में कागज के ग्रन्थ भी ताडपत्रीय ग्रन्थों की तरह लम्बाई चौड़ाई में छाटे मुष्टि-पुस्तक के आकार में लिखते, किन्तु दो तीन विभाग करने आवश्यक नहीं थे । कितन हा ग्रन्थों की लम्बाई ताडपत्त्रीय ग्रन्थों की भांति करके चौड़ाई भी उनसे डबल अर्थात् 4।। इंच का रखा जाती । किन्तु बाद में तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् सुविधा के लिए 12X5 या इससे कमबेश साइज कर दिया गया । प्रारम्भ में कागज के ग्रन्था पर बोर्डर की लकीरें काली होती थीं, पर सोलहवीं शताब्दी से लाल स्याही के बोर्डर बनने लगे । ताडपत्त्रीय ग्रन्थों में पत्रों के न सरकने के लिए खाली जगह में छिद्र करके डोरी पिरोई जाती थी । उसी प्रकार कागज ग्रन्थों में भी उसी पद्धति का अनुकरण कर, खाली जगह रखी जाती; पर डोरी के लिए छिद्र किए ग्रन्थ क्वचित ही पाये जाते हैं, क्योंकि कागज के पत्नों के सरकने का भय नहीं था । खाली जगह
लाल रंग आदि के टीके या फूल आदि विविध अलंकार किये हुए ग्रन्थ भी पाये जाते हैं । उभय पक्ष में ताडपत्रीय पत्रांक लेखन पद्धति उभय प्रकार पहले पहले पाई जाती है, बाद में केवल अंकों में पत्नांक एवं एक ओर ग्रन्थ के नाम की हुण्डी (Heading) लिख दी जाती थी । कितने ही संग्रह ग्रन्थों में सीरियल क्रमिक अंक चालू रखने पर भी विभागीय सूक्ष्म चोर अंक कोने में लिखे जाते थे ।