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. व्यवहार में इस उद्देश और 300 सूत्र हैं। उनमें माहार, विहार, वैश्यावृत्ति, साधु-साध्वी का पारस्परिक व्यवहार, गृहगमन, दीक्षाविधान प्रादि विषयों पर सांगोपांग चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ क भी कर्ता भद्रबाहु मान गये हैं।
4. निसीह में बीस उद्देश और लगभग 1500 सूत्र हैं। इनमें गुरमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक, लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त से संबद्ध क्रियाओं का वर्णन है।
5. महानिसीह में छः अध्ययन और दो चुलाएं हैं जिनका परिमाण लगभग 4554 श्लोक है। भाषा और विषय की दृष्टि से यह ग्रन्थ अधिक प्राचीन नहीं जान पडता। विनष्ट महानिसीय हरिभद्रसूरि ने संशोधित किया और सिद्धसेन तथा जिनदास गणि ने उसे मान्य किया। कर्मविपाक, तान्त्रिक-प्रयोग, संघस्वरूप आदि पर विस्तार से यहां चर्चा की गई है।
6. जीतकप्प की रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 103 गाथाओं में की। इसमें प्रात्मा की विशुद्धि के लिए जीत अर्थात् प्रायश्चित का विधान है। इसमें आलोचना, प्रतिकमण उभय, विव क, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल अनवस्थाप्य और पारा
च. चुलिका सूत्रः--चूलिकायें ग्रन्थ के परिशिष्ट के रूप में मानी गई हैं। इनमें ऐसे विषयों का समावेश किया गया है जिन्हें प्राचार्य अन्य किसी ग्रन्थ प्रकार में सम्मिलित नहीं कर सके। नन्दी और अनुयोगद्वार की गणना चूलिका पत्रों में की जाती है। ये सूत्र अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। नन्दीसूत्र गद्य-पद्य में लिखा गया है। इसमें 90 गाथायें और 59 गद्यसूत्र हैं। इसका कुल परिमाण लगभग 700 श्लोक होगा । इसके रचयिता दूष्यगणि के शिष्य देववाचक माने जाते हैं जो देवधिगणि क्षमाश्रमण से भिन्न है। इसमें पांच ज्ञानों का वर्णन विस्तार से किया गया है। स्थविरावली और श्रुतज्ञान के भद-प्रभेद की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। अनुयोगद्वार में निक्षप पद्धति से जैनधर्म के मूलभूत विषयों का प्राख्यान किया गया है। इसके रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं । इसमें नय, निक्षेप, प्रमाण, अनुगम प्रादि का विस्तृत वर्णन है। ग्रन्थमान लगभग 2000 श्लोक प्रमाण हैं। इसमें अधिकांशतः गद्य भाग है।
छ. प्रकीर्णकः--इस विभाग में ऐसे ग्रन्थ सम्मिलित किये गये है जिनकी रचना तीर्थंकरों द्वारा प्रवदित उपदेश के आधार पर प्राचार्यों ने की है। ऐसे आगमिक ग्रन्थों की संख्या बगभग 14000 मानी गई है परन्तु वल्लभी वाचना के समय निम्नलिखित दस ग्रन्थों का ही समावेश किया गया है--च उसरण, पाउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, भत्तपइण्णा, तंदुलवयालिय, संथारक, गच्छायार, गणिविज्जा, देविदथय, और मरणसमाहि (चउसरण में 63 गाथाय हैं) जिनमें अरिहंत, सिद्ध, साधु, एवं केवलिकथित धर्म को शरण माना गया है। इसे वीरभद्र कृत माना जाता है। पाउरपच्चक्खाण में वीरभद्र ने 70 गाथाओं में बालमरण पीर पण्डितमरण का व्याख्यान किया है। महापच्चक्खाण में 142 गाथायें हैं जिनम व्रतों और पाराधनाओं पर प्रकाश डाला गया है। भत्तपइण्णा में 17 गाथायें हैं जिनमें वीरभद्र ने भक्तपरिज्ञा. इंगिनी और पादोपगमन रूप मरण-भेदों के स्वरूप का विवेचन किया है। तंदुलवयालिय में 139 गाथायें हैं और उनमें गर्भावस्था, स्त्रीस्वभाव तथा संसार का चित्रण किया गया है। संथारक में 123 गाथायें हैं जिनमें मृत्युशय्या का वर्णन है। गच्छायार में 130 गाथाय हैं जिनमें गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों के प्राचार का वर्णन है। गणिविज्जा में 80 गाथायें हैं जिनमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, महर्त प्रादि का वर्णन है। देविदथय (307 गा.) में देवेन्द्र की स्तुति है । मरणसमाहि (663 गा.) में प्राराधना, पाराधक, पालोचना, संलेखन, क्षमायापन आदि पर विवेचन किया गया है।