SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ये आंग सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व के है। पाठवे उपांग से लेकर बारह उपांग तक को समग्र रूप में निरयावलियामो भी कहा गया है। ग. मूलसूत्र : डा. शुबिंग के अनुसार इन में साधु जीवन के मूलभूत नियमो का उपदेश गभित है इसलिये इन्हें मलसत्र कहा जाता है। उपांगों के समान मूलसनों का भी इस नाम से उल्लेख प्राचीन आगमों में नहीं मिलता। इनकी म लसूत्रों की संख्या में भी मतभेद है। कोई इनकी संख्या तीन मानता है-उत्तराध्ययन, मावश्यक मोर दसवैकालिक, और कुछ विद्वानों ने पिण्डनियुक्ति और ओघनिर्य क्ति दोनों में से एक को सम्मिलित कर उनकी संख्या चार कर दी है। 1. उत्तरज्झयण-भाषा भोर विषय की दृष्टि से प्राचीन माना जाता है। इसकी तुलना पालि त्रिपिटक के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि ग्रन्थों से की गई है। इसका अध्ययन आचारांगादि के अध्ययन के बाद किया जाता था। यह भी संभव है कि इसकी रचना उत्तरफाल में हुई हो। उत्तराध्ययन में 36 अध्ययन हैं जिनमें नैतिक, सैद्धान्तिक और कथा का समावश किया गया है। इनमें कुछ जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येक बुद्धों द्वारा प्ररूपित है और कुछ संवाद रूप में कहे गये हैं। 2. श्रावस्सय में छः नित्य क्रियाओं का छ: अध्यायों में वर्णन है--सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । 3. बसवेयालिय के रचयिता आर्य शयंभव है । उन्होंने इसकी रचना अपने पुत्र के लिये की थी। विकाल अर्थात् सन्ध्या में पढ़े जाने के कारण इसे दशवयालिय कहा जाता है। यह दस अध्यायों में विभक्त है जिनमें मुनि-प्राचार का वर्णन किया गया है। 4. पिण्डनियुक्ति में पाठ अधिकार और 671 गाथायें हैं जिनमें उद्गम, उत्पादन, एषणा प्रादि दोषों का प्ररूपण किया गया है। इसके रचयिता भद्रबाहु माने जाते हैं। 5. मोधनियुक्ति में 8 11 गाथायें हैं जिनमें प्रतिलखन, पिण्ड, उपाधिनिरूपण अनायतनवर्णन, प्रतिसेवना, मालोचना और विशुद्धि का निरूपण है । घ. छेदसूत्रः श्रमण धर्म के प्राचार-विचार को समझने की दृष्टि से छेदसूत्रों का विशिष्ट महत्व है। इनमें उत्सर्ग (सामान्य विधान), अपवाद,दोष और प्रायश्चित विधानों का वर्णन किया गया है । छदसूत्रों की संख्या 6 है---दसासुयक्खंध, बृहत्कल्प, ववहार, निसीह, महानिसीह, और पंचकप्प अथवा जीतकप्प । 1. दसासूयक्खंध अथवा प्राचारदसा में दस अध्ययन हैं। उनम क्रमश: असमाधि के कारण, शवलदोष (हस्तकम मथुन आदि), आशातना (अवज्ञा), गणिसम्पदा, चित्तसमाधि, उपासक प्रतिमा, भिक्षु प्रतिमा, पयू षणा कल्प, मोहनीयस्थान और मायातिस्थान (निदान) का वर्णन मिलता है। महावीर के जीवन-चरित की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। इसके रचयिता नियुक्तिकार से भिन्न प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। 2. बृहत्कल्प में छ: उद्देश्य हैं जिनमें भिक्षु-भिक्षुणियों के निवास, विहार, आहार। प्रासन मादि से सम्बद्ध विविध नियमों का विधान किया गया है। इसके भी रचयिता भद्रबाहु माने गये हैं। यह ग्रन्थ गद्य में लिखा गया है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy