SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 260 छन्दविधान की दृष्टि से ये मुक्तक वैविध्यपूर्ण हैं। जहां इनमें परम्परागत, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया, सवैया जैसे छन्द प्रयुक्त हुए हैं वहां नवगीत, फिल्मी धुनों और लोक गीतों की पद्धति पर भी अच्छे गीत लिखे गए हैं। गज़ल और रुबाइयां लिखने में भी ये कवि पीछे नहीं रहे। मुक्त छंदों में भिन्न तुकान्त ढंग की यथार्थवादी कविताएं लिखने में भी इन्हें विशेष सफलता मिली है। (2) गद्य साहित्यः (क) नाटक-एकांकी:---ये दोनों दृश्य काव्य की श्रेणी में आते हैं। इनमें रंगमंच पर पात्रों के द्वारा किसी कथा या घटना का प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शन अभिनय, रंग सज्जा, संवाद, नृत्य-गीत, ध्वनि आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। नाटक का फलक उपन्यास की भांति विस्तत होता है। इसमें कई अंक, घटनायों, दश्यों और समस्याओं का आयोजन होता है। एकांकी में एक अंक, एक घटना, एक कार्य और एक समस्या मख्य होती है । इसका प्रारम्भ सामान्यतः संघर्ष से होता है जो शीघ्र ही गति पकड़ कर चरम सीमा की ओर अग्रसर हो जाता है। आकाशवाणी के विकास के साथ अब रेडियो नाटक अधिक लोकप्रिय बनते जा रहे हैं। जैन-परम्परा में नाट्य रूपों का विशेष महत्त्व रहा है। विभिन्न पर्यों और कल्याणक महोत्सवों पर नाट्य प्रदर्शित करने की यहां सुदीर्घ परम्परा रही है। आज नाटक और एकांकी जिस रूप में हैं उनका मूल प्राचीन दीर्घ और लघु रास काव्यों में देखा जा सकता है। प्रारम्भिक रास नृत्य, संगीत और अभिनय प्रधान होते थे। बाद में चलकर वे पाख्यान प्रधान बन गए । आधुनिक युग में नाट्य विधा की ओर जैन साहित्यकार विशेष आकर्षित नहीं हुए । इसके कई धार्मिक और सामाजिक कारण हैं। इनमें एक प्रमुख कारण वीतरागी पात्रों को मंच पर उपस्थित न करने की प्रवृत्ति है । राजस्थान के साहित्यकार भी कथा साहित्य की अपेक्षा नाटय साहित्य की ओर कम आकर्षित हुए हैं। पूरे नाटक के रूप में श्री महेन्द्र जैन द्वारा लिखित “महासती चन्दन बाला" नाटक ही उल्लेख योग्य है। साहित्यिक और रंगमंचीय दोनों तत्त्वों की दष्टि से यह एक सफल नाट्य कृति है।। भगवान महावीर के 2500वें परिनिर्वाण वर्ष के अवसर पर लोक नाट्य शैली पर आधारित दो विशेष नाट्य तैयार किए गए हैं जिनकी भगवान महावीर के जीवनादर्शों को लोकमानस तक लोकोनरंजन परक शैली में प्रेषित करने में विशेष भमिका रही है। ये हैं-- "भगवान महावीर स्वामी की पड़" और "वैशाली का अभिषेक" । __ "महावीर स्वामी की पड़", राजस्थानी पड़ परम्परा में एक विशेष उपलब्धि है। पड़ो में पाबूजी तथा देवनारायण की पड़े तो लोकप्रिय हैं ही पर भीलवाड़ा के श्री निहाल अजमेरा ने जिनेन्द्र कला भारती की ओर से इस पड़ नाट्य को प्रस्तुत कर निश्चय ही एक अभिनव प्रयोग किया है। पड़ के चारों ओर बाउण्ड्री में जैन प्रतीकों (यथा--अष्टमंगल, धर्मचक्र, स्वस्तिक आदि) व पट्टियों का सुन्दर संयोजन किया गया है। पड़ में भगवान महावीर की प्रभाव पूर्ण जीवन गाथा चित्रित है। इसका प्रदर्शन करते समय यह मंच पर दर्शकों के सम्मुख लगा दी जाती है। तत्पश्चात् इसका वाचन प्रारम्भ होता है। एक व्यक्ति चित्रों के सम्बन्ध में पूछता है और दूसरा उनके सम्बन्ध में नाटकीय लहजे में उत्तर देता चलता है। इसका चित्रांकन श्री राजेन्द्रकुमार जोशी ने बड़े मनोयोग पूर्वक किया है। इसकी प्रदर्शन-अवधि डेढ़ घण्टे की है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy