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________________ 259 इनका प्रानन्द गाकर लिया जाता है। राजस्थान के आधुनिक जैन कवियों में जैन-संतों की विशेष भूमिका रही है। भक्त श्रद्धालों को प्रतिदिन नियमित रूप से प्रवचन या व्याख्यान सुनाना इन संतों का दैनन्दिन कार्यक्रम है। व्याख्यान में सरसता बनाए रखने के लिए सामान्यत: कविता का सहारा लिया जाता है। परम्परा रूप से ढाल और भजन गाने की परिपाटी रही है पर धीरे-धीरे उसका स्थान गेय मक्तक लेते रहे हैं। इस दृष्टि से इन मुक्तकों की रचना विपूल परिमाण में हई है। इनका मुख्य उद्देश्य सदाचारमय नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देना है। ये शद्ध संवेदनात्मक गीतों के रूप में भी लिखे गए हैं और कथा को आधार बनाकर भी। शुद्ध संवेदनात्मक गीतों में कवि स्वयं ही अपना आत्म निवेदन करता है जब कि कथाधारित गीतों में कवि प्रात्म-निवेदन तो करता है पर किसी दूसरे पात्र द्वारा कथा को प्राधार बना कर । अध्ययन की दष्टि से गेय मक्तकों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है--- स्तवन मूलक, प्रेरणा मूलक और वैराग्य मूलक । स्तवन मूलक गीत विशेषतः प्रार्थनापरक और अपने आराध्य की गरिमा-महिमा के सूचक हैं। पूजा-गीत इसी श्रेणी में आते हैं। प्रेरणा मूलक गीतों का मूल स्वर सुषुप्त पुरुषार्थ को जगा कर मनुष्यत्व से देवत्व की ओर बढ़ने तथा आत्मविजेता, शुद्ध बुद्ध परमात्म बनने का है। सामाजिक धरातल से प्रेरित होकर लिखे गए प्रेरणा गीतों में प्रगतिशील मानववादी स्वर मुखरित हुआ है। इसमें आधुनिक जीवन की विसंगतियों, भौतिक सभ्यता के कृत्रिम अावरणों, शोषणपरक प्रवृत्तियों, अंधविश्वासों और थोथे अादर्शों पर कटु व्यंग्य किया गया है। अणुव्रत आन्दोलन, विभिन्न पर्व-तिथियों और जयन्तियों को आधार बना कर लिखे गए प्रेरणा-गीत हृदय में उत्साह और उमंग, शक्ति और स्फति संचरित करने में सक्षम बने हैं। वैराग्यमलक गीतों में जीव को संसार से विरत होकर आत्मकल्याण की ओर उन्मुख होने की उद्बोधना दी गई है। मन की चंचल वत्तियों, विषयवासना और सप्त-कूव्यसनों के दुष्परिणामों व जीवन की क्षण भंगुरता और संसार की असारता के प्रात्मस्पर्शी चित्रण के साथ-साथ आध्यात्मिक रहस्यात्मकता और परम आनन्दा नभति का मार्मिक चित्रण यहां प्रस्तुत किया गया है । पाठ्य मक्तकों में गेय मुक्तकों की तरह गायन तत्त्व की प्रधानता नहीं है। ये सामान्य रूप से मात्रिक एवं वर्णिक छन्दों में लिख गए हैं। विषय की दृष्टि से इन्हें दो भेदों में रखा जा सकता है--तत्त्व प्रधान और उपदेश प्रधान । तत्त्व-प्रधान मुक्तकों में प्रात्म-स्वातन्त्रय. कर्मफल, पुनर्जन्म, अहिंसा, अनेकान्त, ब्रह्मचर्य, क्षमा जैसे उदात्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। उपदेश प्रधान मक्तकों में जीव को लोक व्यवहार एवं अध्यात्म भाव की शिक्षा दी गई है। इन उपदेशों में यों तो सामान्य स्तर पर नोति की बातें कही गयी हैं पर कहीं-कहीं चुटीले-चु भते हुए व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं । इन मक्तकों में प्रकृति का शीलनिरूपक रूप ही विशेषतः उभर कर सामने आया है। मानव जीवन की पृष्ठभमि एवं सहानुभूति के रूप में प्रकृति के विभिन्न रंग मर्मस्पर्शी बन पडे हैं। विराट-प्रकृति के विविध उपादानों को माध्यम बना कर शाश्वत जीवन सत्य की सटीक व्यंजना की गई है। इन मक्तकों की भाषा सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण है। भावों को विशेष प्रेषणीय बनाने के लिए प्रश्नोत्तर, आत्मकथात्मक, सम्बोधन आदि विविध शैलियों का प्रयोग किया गया है। अलंकारों में सादृश्यमूलक अलंकारों का विशेष प्रयोग किया गया है. पर मानवी करण, बिम्ब विधान, विशेषण विपर्यय, प्रतीकात्मकता आदि से ये अछूते नहीं है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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