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________________ 9.. आराधनासार टीका--यह देवसेन के आराधनासार पर टीका है। इसकी क पाण्डुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध है । 10. अमरकोश टीका-- यह अमरसिंह कृत अमरकोश पर टीका है जो अभी सक अप्राप्य स्थिति में ही है। 11. क्रियाकलाप - इसमें आचार शास्त्र का वर्णन है । 12. . काव्यालंकार टीका-- यह रुद्रट कवि के काव्यालंकार पर टीका है । 13. जिन सहस्रनाम-- यह जिनेन्द्र भगवान का स्तोत्र है जिस पर स्वयं ग्रन्थकार की टीका है । यह श्रुतसागर सूरि की टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। 14 जिन-पंजरकाव्य- इसमें प्रतिष्ठा सम्बन्धी क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया हुआ है । महापंडित आशाधर ने इसे संवत् 1285 में नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में समाप्त किया था । उस समय मालवा पर परमारवंशी देवपाल का शासन था। 15. त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र-- इसमें संक्षिप्त रूप में प्रेसठ शलाका पुरुषों का चरिक वणित है । ग्रन्थ को रचना नित्य स्वाध्याय के लिये जाजाक पंडित की प्रेरणा से सम्पन्न हुई थी । इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि. सं. 1292 है। यह भी नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में ही समाप्त हया था । ___16. रत्नत्रय विधान-- यह लघु ग्रन्थ है जो सलखणपुर के निवासी नागदेव की प्रेरणा से उसकी पत्नी के लिये लिखा गया था। इसका रचना काल संवत् 1282 है । __17-18. सागार धर्मामृत एवं अनगार धर्मामृत भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका सहितमहापंडित, आशाधर के ये दोनों ही अत्यधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है । सागारधर्मामृत में गृहस्थधर्म का निरूपण किया गया है जो आठ अध्यायों में विभक्त है। इसी तरह अनगारधर्मामृत में मुनिधर्म का वर्णन किया गया है। इसमें मुनियों के मुलगण एवं उत्तरगुणों का विस्तार पूर्वक वर्णन हुआ है। सागार धर्मामृत टीका सहित रचना वि. सं. 1296 में पौष सुदी 7 शक्रवार के दिन समाप्त की गयी । इस ग्रन्थ-रचना की प्रेरणा देने वाले थे पौरपाटान्वयी महीचन्द साधु । अनगारधर्मामत की रचना इसके चार वर्ष पश्चात् वि. सं. 1300 में कार्तिक सुदी 5 सोमवार के दिन समाप्त हई थी। यह भी टीका सहित है। कवि ने मल ग्रन्थ की रचना 954 श्लोकों में की थी। इस प्रकार महा पंडित आशाधर ने संस्कृत भाषा की जो सेवा की थी, वह सदा उल्लेखनीय रहेगी। आशाधर का समय विक्रम की 13 वीं शताब्दी निश्चित है। अनगार धर्मामत उनकी अन्तिम कृति थी जो संवत 1300 की रचना है। इसके पश्चात कवि अधिक समय तक जीवित रह हों इसकी कम संभावना है। 11. वाग्भट्ट ___ वाग्भट्ट नाम के कितने ही विद्वान हो गये हैं । आयुर्वेद शास्त्र की सुप्रसिद्ध कृति अष्टांगहृदय के रचयिता वाग्भट्ट के नाम से अधिकांश विद्वान् परिचित हैं, ये सिन्धु देश
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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