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________________ 102 निवासी थे।नमिनिर्वाण महाकाव्य के निर्माता वाग्म महाकवि थे जो पोरवाड जाति के श्रावक पे तथा छाहड के पुत्र थे। वाग्भटालंकार के कर्ता तीसर वाग्भट्ट थे जो गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के महामात्य थे। ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थे। __प्रस्तुत वाग्भट्ट उक्त तीनों विद्वानों से भिन्न हैं। ये वाग्भट्ट भी अत्यधिक सम्पन्न घराने के थे जिनके पितामह का नाम माक्कलय था। माक्कलय के दो पुत्र थे, इसमें राहड ज्येष्ठ एवं नेमिकूमार लघ पुत्र थे। इन दोनों भाइयों में राम लक्ष्मण जैसा प्रेम था। राहड ने व्यापार में विपुल द्रव्य एवं प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। राहड ने दो नगरों को बसाया था जो राहडपुर एवं तलोटकपुर के नाम से विख्यात हुये। राहडपुर में भगवान् नेमिनाथ का विशाल जिनालय भी इन्होंने ही बनवाया। तलोटकपुर में राहड द्वारा निर्मित ऋषभदेव के विशाल जिनालय में 22 वेदियां बनवायी गयौं। मेवाड की जनता नेमिकुमार से बहुत प्रभावित थी। इन्हीं नेमिकुमार के पुत्र थे वाग्भट्ट, जिनकी दो कृतियां छन्दोनुशासन एवं काव्यानुशासन उपलब्ध होती है, छन्दोनुशासन संस्कृत के छन्द शास्त्र का ग्रन्थ है जो पांच अध्यायों में विभक्त है। ये अध्याय है--संज्ञाध्याय, समवृत्ताख्य, अर्घ समवृत्ताख्य, मात्रासमक एवं मात्रा छन्दक। काव्यानुशासन लघु ग्रन्थ है जिसमें 289 सूत्र है तथा जिनमें काव्य संबंधी विषयों का रस, अलंकार, छन्द, गुण, दोष आदि का कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञवत्ति में कवि ने विभिन्न ग्रन्थों के पद्य उद्धृत किये हैं। थागभट्ट स्वयं ने अपने आपको महाकवि लिखा है। ये 13 वीं शताब्दी के विद्वान थे । 12. भट्टारक प्रभाचन्द्र प्रभाचन्द्र भट्टारक थे। वे भट्टारक धर्मचन्द्र के प्रशिष्य एवं भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य थे। भट्टारक धर्मचन्द्र एव भट्टारक रत्नकीर्ति दोनों ही अपने समय के प्रभावशाली महारक थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कितनी ही मतियां रणथम्भौर, भरतपुर एवं जयपुर आदि नगरों में मिलती हैं। प्रमाचन्द्र तुगलक वंश के शासन काल में हुये थे। वे जैन संघ के आचार्य थे और अजमेर उनकी गादी का प्रमुख केन्द्र था तथा राजस्थान, देहली एवं उत्तरप्रदेश उनका कार्यक्षेत्र था। एक पट्टावली के अनुसार भट्टारक प्रभाचन्द्र का जन्म संवत् 1290 पौष सुदी 15 को हुआ। वे 12 वर्ष तक गृहस्थ रहे तथा 12 वर्ष तक साधु की अवस्था में दीक्षित रहे। वे 74 वर्ष 11 मास 15 दिन तक भट्टारक पद पर बने रहे। इन्होंने ज्यपाद के समाधितन्त्र पर तथा आचार्य अमृतचन्द्र के आत्मानुशासन पर संस्कृत टीकायें लिखीं जो अपने समय की लोकप्रिय टीकायें मानी जाती रहीं। 13. मट्टारक पद्मनन्दि म. प्रभाचन्द्र के ये प्रमुख शिष्य थे। वे प्रभाचन्द्र की ओर से गुजरात में धर्म प्रचार के लिये नियुक्त थे और वहीं पर वै समाज द्वारा भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित कर दिये गये। भट्टारक -- बनने से पूर्व ये आचार्य शब्द से संबोधित किये जाते थे। एक पट्टावली के अनुसार वे जाति से ब्राह्मण थे। वे केवल 10 वर्ष 7 महीने तक ही अपने पिता के पास रहे और 11 वर्ष की आयु में ही वैराग्य धारण कर इन्होंने मट्टारक प्रमाचन्द्र का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। युवावस्था में वे आचार्य बन गये। इसके पश्चात संवत 1385 पौष सुदी सप्तमी की शुभ वेला में भट्टारक
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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