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________________ 103 दि पर सशोभित कर दिये गये। इस समय उनकी आय केवल 34 वर्ष की थी। वे पूर्ण एवा थे, और प्रतिभा के धनी थे। पद्मनन्दि पर सरस्वती की असीम कृपा थी। एक बार उन्होंने गषाण की सरस्वती को मुख से बुला दिया था। - गुजरात प्रदेश के अतिरिक्त आचार्य पद्मनन्दि ने राजस्थान को अपना कार्य क्षेत्र चुना था चित्तौड, मेवाड, बन्दी, नैणवा, टोंक झालावाड जैसे स्थानों को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। वे नैणवा (चित्तौड) जैसे सांस्कृतिक नगर में 10 वर्ष से भी अधिक समय तक रहे। म. सकलकीति ने उनसे इसी नगर में शिक्षा प्राप्त की थी और यहीं पर उनसे दीक्षा धारण की थी। इनके पन्थ में अनेक साव-साध्वियां थीं। इनके चार शिष्य प्रधान थे जिन्होंने देश के अलग-अलग मागों में भट्टारक गादियां स्थापित की थीं। __ आचार्य पद्मनन्दि संस्कृत के बड़े भारी विद्वान् थे। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में इनकी कितनी हो रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं उनमें से कुछ रचनाओं के नाम निम्न प्रकार है :1. पदमनन्दि श्रावकाचार 2. अनन्तव्रत कथा 3. द्वादशवतोद्यान पूजा 4. पार्श्वनाथ स्तोत्र 5. नन्दीश्वर भक्ति पूजा 6. लक्ष्मी स्तोत्र 7. वीतराग स्तोत्र श्रावकाचार टीका 9. देव-शास्त्र-गुरुपुजा 10. रत्नत्रयपूजा भावना चौतीसी 12. परमात्मराज स्तोत्र 13. सरस्वती पूजा 14 सिदपूजा 15. शान्तिनाथ स्तवन 14. मटारक सकलकोति 15 वीं शताब्दी में जैन साहित्य की जबरदस्त प्रभावना करने वाले आचार्यों में भट्रारक कलकोति का नाम सर्वोपरि है। देश में जैन साहित्य एवं संस्कृति का जो जबरदस्त प्रचार एवं प्रसार हो सका उसमें इनका प्रमुख योगदान रहा । सकलकीर्ति ने संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य को नष्ट होने से बचाया और लोगों में उसके प्रति अदभुत आकर्षण पैदा किया। जीवन परिचय सन्त सकलकीर्ति का जन्म संवत् 1443 (सन् 1386) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोमा था। ये अणहिलपुर पट्टण के रहने वाले थे। इनकी जाति हुबंड थी। इनके बचपन का नाम 'पूनसिंह' अथवा पूर्णसिंह था । एक पट्टावली में इनका नाम 'पदर्थ' भी दिया हुआ है। 25 वर्ष तक ये पूर्ण गृहस्थ रहे लेकिन 26वें वर्ष में इन्होंने अपार 1. हरषी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य ऊभरि सुपर । चोऊद त्रिताल प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ ॥ 2. न्याति मांहि मुहुतवंत हूंवड हरषि वखाणिइए । करमसिंह वितपन्न उदयवन्त इम जाणीइए ॥3॥ शोभित तरस अरधांगि, मूलीसरीस्य सुंदरीय । सील स्यंगारित अंगि पेख प्रत्यक्षे पुरंदरीय ॥4ll -सकलकीति रास
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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