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________________ 104 सम्पत्ति को तिलांजलि देकर साधु जीवन अपना लिया । उस समय मट्टारक पद्मनन्दि का मुख्य केन्द्र नैणवां ( राजस्थान ) था। वे आगम ग्रन्यों के पारगामी विद्वान् माने जाते थे। इसलिये ये भी नैणवां चले गये और उनके शिष्य बन कर अध्ययन करने लगे। वहां ये आठ वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत के ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया, उनके मर्म को समझा और भविष्य में सत्-साहित्य का प्रचार-प्रसार ही अपना एक उद्देश्य बना लिया । 34 वें वर्ष में उन्होंने भट्टारक पदवी ग्रहण की और अपना नाम सकलकीति रख लिया । व्यक्तित्व एवं पाण्डित्य भट्टारक सकलकीति अगाधारण व्यक्तित्व वाले सन्त थे । इन्होंने जिन-जिन परम्पराओं की नींव रखी. उनका बाद में खब विकास हआ । अध्ययन गम्भीर था-इसलिये कोई भी विद्वान इनके सामने नहीं टिक सकता था। प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं पर इनका समान अधिकार था। ब्रह्म जिनदास एवं भट्टारक भुवनकीर्ति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना ही इनके प्रबल पाण्डित्य का सूचक है । इनकी वाणी में जादू था इसलिये जहां भी इनका विहार हो जाता या वहीं इनके सैंकड़ों भक्त बन जाते थे। ये स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने शिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान् बनाया । ब्रह्म जिनदास ने, अपने "जम्बूस्वामी चरित" में इनको महाकवि, निर्ग्रन्थ राज एवं शुद्ध चरित्रधारी तथा हरिवंश पुराण में तपो. निषि एवं निर्ग्रन्थ श्रेष्ठ आदि उपाधियों से सम्बोधित किया है । भट्टारक सकलभूषण ने अपने उपदेश-रत्नमाला की प्रशस्ति में कहा है कि सकलकीति जन-जन का चित्त स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्य-मूर्ति स्वरूप थे तथा पुराण ग्रन्थों के रचयिता थे । इसी तरह भट्टारक शुभचन्द्र ने सकलकीर्ति को पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध नेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके बाद होने वाले प्रायः सभी भट्टारक सन्तों ने सकलकीर्ति के व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता की भारी प्रशंसा की है । ये मट्टारक थे किन्तु मनि नाम से भी अपने मापको सम्बोधित करते थे । “धन्य कुमार चरित्र" ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने-आपका "मुनि सकलकोति" नाम से परिचय दिया है । मृत्यु एक पट्टावली के अनुसार मट्टारक सकलकीर्ति 56 वर्ष तक जीवित रहे । संवत 1499 में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुआ । पं. परमानन्द शास्त्री ने भी "प्रशस्ति संग्रह" में इनको मृत्यु संवत् 1499 में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है । डा. ज्योति 1. ततोमवत्तस्य जगत्प्रसिद्धः पटटे मनोज्ञे सकलादिकीतिः। महाकविःशद्धचरित्रधारी निर्ग्रन्थराजा जगति प्रतापी ॥ -जम्बूस्वामी चरित्र तत्पट्ट पंकजविकासमास्वान वभव निर्ग्रन्थवरः प्रतापी । महाकवित्वादिकला प्रवीणः तपोनिधिःची सकलादिकीतिः ॥ -हरिवंश पुराण 3. तत्पट्टधारी जनचित्तहारि पुराणमुख्योत्तम-शास्त्रकारी ! भट्टारक-श्रीसकलादिकोतिः प्रसिद्धनामाजनि पुण्यमूर्तिः ॥21611 उपदेशरत्नमाला, सफलभूषण
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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