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धर्म है और उन निर्विकारी भावों को विवेकपूर्वक जीवन व्यवहार में उतारना आचार धर्म है । यदि विचारों में राग, द्वेष ग्रादि विकारों का विष नहीं है, तो प्रचार में भी उनका कुप्रभाव प्रतिलक्षित नहीं होगा ।'
( अर्चना और आलोक से उदधृत, पृष्ठ-303)
2. साध्वी मैना सुन्दरी जी -
सौम्य स्वभाव और मधुर व्यक्तित्व की धनी साध्वी श्री मैनासुन्दरी जी अपनी प्रोजस्वी प्रवचन शैली और स्पष्ट विचार धारा के लिए प्रसिद्ध हैं । आपके विषय - प्रतिपादन में शास्त्रीय धार तो होता ही है, वह नानाविध जीवन प्रसंगों, ऐतिहासिक घटनाओं और काव्यात्मक उदाहरणों से सरस और रोचक बनकर श्रोता समुदाय को आत्म विभोर करता चलता है । विशेष पर्व तिथियों और पर्युषण पर्वाराधन के 8 दिनों में दिये गये आपके प्रवचन विशेष प्रभावशाली और प्रेरक सिद्ध हुए हैं ।
आपके प्रवचनों के दो संग्रह, प्रकाशित हो चुके हैं - दुर्लभ अंग चतुष्टय और पर्युषण पर्वाराधन । पहली कृति में मनुष्यत्व, श्रुतवाणी श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ इन चार दुर्लभ अंगों पर मार्मिक प्रवचन और परिशिष्ट में इन पर दो-दो कथाएं संकलित हैं । दूसरी कृति में सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक् चारित्र, तप, दान, संयम, आत्म शुद्धि और क्रोधविजय पर जीवन निर्माणकारी सामग्री प्रस्तुत की गई है। आपकी शैली सरस एवं सुबोध हैं, भाषा में प्रवाह है, माधुर्य है और विषय का आगे बढ़ाने की अपूर्व क्षमता है । एक उदाहरण देखिए-
लूला
'किसी भयानक वन में बहुत जोरों से आग लगी हो और उसमें एक अन्धा और दूसरी तरफ एक लूला व्यक्ति झुलस रहा हो, ऐसी विषम वेला में दोनों आपस में प्रेम करलें और कहदें कोई बात नहीं यदि हमें अंग अपूर्ण मिले हैं, परन्तु हम एक दूसरे के सहायक बनकर इस बीहड़ भूमि से पार हो जायेंगे । अन्धा अपने कन्धे पर लूले को चढ़ाले और उन्हें मार्ग-दर्शन करता रहे तो वे दोनों सरलता से पार होंगे या नहीं ? उत्तर स्पष्ट है कि अवश्य ही होंगे । तो आइये हम अपने जीवन को ज्ञान और क्रिया के समन्वय से सुन्दर, समुज्ज्वल स्वरूप प्रदान करें ताकि हमारे लड़खड़ाते कदम अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर और मृत्यु अमरत्व की ओर बढ़ सकें ।
(पर्युषण पर्वाराधन से उद्धृत, पृष्ठ 66 )
उक्त साध्वी द्वय के अतिरिक्त अन्य साध्वी लेखिकाओं में साध्वी श्री रतनकंवर जी और निर्मल कंवरजी के नाम उल्लेख योग्य हैं। इन उदीयमान लेखिकाओं के निबन्ध 'जिनवाणी' मासिक पत्रिका में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं । इनके अतिरिक्त महासती जसकंवरजी, छगन कंवरजी, कुसुमवती जी श्रादि प्रभावशाली व्याख्यानकती साध्वियां हैं ।
[ग] गृहस्थ वर्ग : --
जैन संत-सतियों के समानान्तर ही जैन गृहस्थ वर्ग का भी साहित्य सर्जना में योग रहा है। यों जैन समाज मुख्यतः व्यावसायिक समार्ज है पर राष्ट्रीय जीवन के सभी पक्षों को पुष्ट करने में उसकी सबल भूमिका रही है । साहित्य का क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा । में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ श्रावाज बुलन्द करने, नैतिक शिक्षण को बढ़ावा देने, स्वाधीनता आन्दोलन को गतिशील बनाने, धर्म और दर्शन को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने तथा समाज में ऐक्य और सेवा भावना का प्रसार करने जैसे विविध लक्ष्यों को ध्यान में रख कर गद्य
समाज