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________________ 176 लावण्यकीर्ति खरतरगच्छीय ज्ञानविलास के शिष्य थे। इनकी सबसे उल्लेखनीय 'रामकृष्ण चौपई' है जो छह खण्डों में कृष्ण और बलराम के चरित्र को लेकर लिखी गई है । लाभोदय खरतरगच्छीय भवनकीर्ति के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित 'कयवन्ना रास' महत्वपूर्ण कृति है । गुणनन्दन सागरचन्द्रसूरि शाखा के विद्वान ज्ञानप्रमोद के शिष्य थे । इनके द्वारा रचित इलापुत्र रास (सं. 1676 ) उल्लेखनीय कृति है । इनके अतिरिक्त कविवर लब्धिरत्न, देवरल महिमामेरु, लब्धिराज, कल्याणकलश, पद्मकुमार, कनककीर्ति एवं लखपत के नाम उल्लेखनीय हैं। 18वीं शताब्दी सतरहवीं शती राजस्थानी साहित्य का उत्कर्ष काल था । उसका प्रभाव 18वीं के पूवार्द्ध तक रहा, फलतः पूर्वार्द्ध में कई विशिष्ट विद्वानों एवं सुकवियों के दर्शन होते हैं जिनमें से कुछ का जन्म 17वीं में और कुछ कवियों का जन्म 17वीं के अन्त में हुआ है । ऐसे विद्वानों मैं तपागच्छ में उ. मेघविजय, विनयविजय, यशोविजय एवं खरतरगच्छ में धर्मवर्द्धन, जिनहर्ष, योगीराज आनंदघन, लक्ष्मीवल्लभ, जिनसमुद्रसूरि एवं उत्तरार्द्ध में श्रीमद्देवचन्द्र विशेष रूप से उल्लेख योग्य हैं । इनमें से मेघविजय का विहार तो राजस्थान में रहा पर उनकी काव्यादि रचनाएं संस्कृत में ही अधिक हैं । व्याकरण, काव्य, ज्योतिष, सामुद्रिक, मंत्र, छंद, न्याय आदि के आप प्रकाण्ड विद्वान थे । यशोविजय, विनयविजय का विहार गुजरात में ही अधिक. है । इनकी संस्कृत के साथ लोकभाषा की भी प्रचुर रचनायें प्राप्त हैं पर उनकी भाषा गुजराती. है । जिनहर्ष एवं देवचन्द्र दो ऐसे विद्वान हैं जिनका उत्तरकाल (जीवन) गुजरात में बीता । श्रतः आपकी पूर्ववर्ती रचनाएं राजस्थानी में और परवर्ती रचनायें गुजराती भाषा में पाई जात हैं । इस शती के दो जैन कवियों ने मातृभाषा की अनुपम सेवा की है। इनकी समस्त रचनायें लोकभाषा की ही हैं और उनका समग्र परिमाण लाख श्लोकों के बराबर है । वे हैं - जिनह और जिनसमुद्र सूरि । वैसे जयरंग, सुमतिरंग, धर्ममन्दिर, लब्धोदय, अभयसोम, लाभवर्द्धन, कुशलधीर, अमरविजय, विनयचन्द, आनन्दघन, लक्ष्मीवल्लभ, श्रमविजय आदि पचासों कवियों ने राजस्थानी साहित्य के भण्डार को भरा है । कविवर जिनहर्ष आपका नाम जसराज था और दीक्षित अवस्था का नाम जिनहर्ष है । श्रापकी गुरु परम्परा खरतरगच्छ के प्रकट प्रभावी दादा श्री जिनकुशलसूरि के प्रशिष्य क्षेमकीर्ति क्षेम शाखा से संबंधित है एवं परवर्ती परम्परा में बीकानेर के श्री पूज्य जिनविजयेन्द्र सूरि एक दशक पूर्व विद्यमान थे । आपकी सर्वप्रथम रचना सं. 1704 की उपलब्ध होने से जन्म सं. 1675 के लगभग होना सम्भव है । दीक्षा जिनराजसूरि के हाथ से सं. 1690 के लगभग हुई होगी । श्रापका जन्म तो मारवाड में ही होना सुनिश्चित है, क्योंकि सं. 1704 से 1735 तक की रचनायें भी आपकी मारवाड प्रदेश में ही रचित हैं । श्रापके बड़े-बड़े ग्रन्थों की सूची इस प्रकार चन्दनमलयागिरी चौ., सं. 1704; विद्याविलास रास, सं. 1711 सरसा; मंगलकलश चौ., सं. 1714; मत्स्योदर रास, सं. 1718 बाहडमेर; शीलनववाड सम्यक्, सं. 1729; नंदबहत्तरी, सं. 1714; गजसुकुमाल चौ., सं. 1714; जिनप्रतिमा हुण्डी रास, सं. 1725; कुसुमश्री रास, सं. 1719, मृगापुत्र चौ., सं. 1714 सत्यपुर; मातृका बावनी, सं. 1730, ज्ञातासूत सज्झाय, सं. 1736 पाटण; समकित सतमी, सं. 1786; सुकराज रास, सं. 1736 पाटण;
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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