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________________ 5. आचार साहित्य आचार साहित्य में सागार और अनगार के व्रतों और नियमों का विधान रहता है । वट्टकेर (लगभग 3री शती) का मलाचार (1552 गा.), शिवार्य (लगभग तुतीय शती) का भगवा पाराहणा (2166 गा.) और वसुनन्दी (13वीं शती) का उवासयाज्झयण (546 गा.) शौरसेनी प्राकृत में लिखे कुछ विशिष्ट ग्रन्थ हैं जिनमें मुनियों और श्रावकों के प्राचारविचार का विस्तृत वर्णन है। इसी तरह हरिभद्रसूरि के पंचवत्थुग (1714 गा.), पंचासग ( 950 गा. ), सावयपण्णत्ति (405 गा.) और सावयधम्मविहि (120 गा.), प्रद्युम्नसूरि की मूलसिद्धि (252 गा.), वीरभद्र (सं. 1078) की आराहणापडाया (990 गा.), देवेन्द्रसूरि की सड़ददिण किञ्च (344 गा.) आदि जैन महाराष्ट्री में लिखे प्रमुख ग्रन्थ हैं। इनमें मुनि और श्रावकों की दिनचर्या, नियम, उपनियम, दर्शन, प्रायश्चित आदि की व्यवस्था विधि बताई गई है। इन ग्रन्थों पर अनेक टीकार्य भी मिलती है। _6. विधि-विधान और भक्तिमूलक साहित्य प्राकृत में एसा साहित्य भी उपलब्ध होता है जिसमें प्राचार्यों ने भक्ति, पूजा प्रतिष्ठा, यज्ञ, मन्त्र , तन्त्र, पर्व, तीर्थ आदि का वर्णन किया है। कुन्दकुन्द की सिद्ध भक्ति (12 गा.), सुदत्ति, चरित्तभत्ति, (10 गा.) अणगारभत्ति, (23 गा.), पायरियभत्ति, (10 गा.), पंवगुरुभत्ति, (7 गा.), तित्थयरभत्ति,(8 गा.) और निव्वाणभत्ति, (26 गा.) विशेष महत्वपूर्ण हैं। यशोदेवसूरि का पच्चक्खाणसरुव (329 गा.); श्रीचन्द्रसूरि की अणट्ठाणविहि, जिनवल्लभगणि की पडिक्कमणसमायारी (40 गा.),पोसहविहिपयरण (11 और जिनप्रभसूरि (वि. सं. 1363) की विहिमगप्पवा (3575 गा.) इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। धनपाल की ऋषभपंचासिका (50 गा.), भद्रबाहु का उपसग्गहरस्तोत्र (20 गा.), नन्दिषेण का अजियसं तिथय, देवेन्द्रसूरि का शास्वतचंत्यस्तव, धर्मघोषसूरि (14वीं शती) का भवस्त्रोत्र, किसी अज्ञात कवि का निर्वाणकाण्ड (21 गा.) तथा योगन्द्रदेव (छठी शती) का निजात्माष्टक प्रसिद्ध स्तोत्र है इन स्तोत्रों में दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ ही काव्यात्मक तत्वों का विशेष ध्यान रखा गया है। 7. पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य जैन धर्म में 63 शलाका महापुरुष हुए है जिनका जीवन-चरित्न कवियों ने अपनी लेखनी में उतारा है। इन काव्यों का स्रोत आगम साहित्य है । इन्हें प्रबन्ध काव्य की कोटि में रखा जा सकता है। इनमें कवियों ने धर्मोपदेश, कर्मफल, अवान्तरकथायें, स्तुति दर्शन, काव्य और संस्कृति को समाहित किया है। साधारणतया सभी काव्य शान्तरसनिवर्ती हैं। इनमें महाकाव्य के प्रायः सभी लक्षण घटित होते हैं। लोकतत्वों का भी समावेश यहां हुआ है। पउमचरिय (8351 गा.) पौराणिक महाकाव्यों में प्राचीनतम कृति है। जिसकी रचना विमलसरिने वि.सं.530 में की। कवि ने यहां रामचरित को यथार्थवादि भूमिका पर खड़े होकर लिखा है। उसमें उन्होंने अतार्किक और बेसिर-पर की बातों को स्थान नहीं दिया है। सभी प्रकार के गुण, अलंकार, रस और छन्दों का भी उपयोग किया गया है। . गप्त वाकाटक युग की संस्कृति भी इसमें पर्याप्त मिलती है। महाराष्ट्री प्राकृत का परिमाजित रूप यहां विद्यमान है। कहीं-कहीं अपभ्रंश का भी प्रभाव दिखाई देता है। इसी तरह भवनतगसूरि का सीताचरित्र (465 गा.) भी है। ____ सम्भवतः शीलांकाचार्य से भिन्न शीलाचार्य (वि. सं. 925) का चउपन्नमहा पुरिसचरिय (10800 श्लोक प्रमाण), भद्रेश्वरसूरि (12 वीं शती) रचित कहावली तथा,
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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