SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयविमलगणि (वि. सं. 1623) का भावप्रकरण (30 गा.), हर्षकुल गणि (16वीं शती) का बन्धोदयसत्ता प्रकरण (24 गा.) ग्रन्थ भी यहां उल्लेखनीय हैं । ___4. सिद्धान्त साहित्य कर्मसाहित्य के अतिरिक्त कुछ और ग्रन्थ है जिन्हें हम मागम के अन्तर्गत रख सकते है। इन ग्रन्थों में प्राचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) के पवयणसार (275 गा.), समयसार (415 गा.), नियमसार (181 गा.), पंचत्थिकाय-संगहसुत्त (173 गा.), देवणपाहुड (36 गा.), चारित्तपाहुड (44 गा.), सुत्तपाहुड (27 गा.), बोषपाहुड (62 गा.), भावपाहुड (166 गा.), मोक्खपाहुड (106 गा.), लिंगपाहुड (22 गा.) और सीलपाहुड (40 गा.) प्रधान ग्रन्थ हैं। इनमें निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा की विशुद्धावस्था को प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है। इनकी भाषा शौरस नी है। अनेकान्त का सम्यक विवेचन करने वालों में आचार्य सिद्धसेन (5-6वीं शती) शीर्षस्थ है। जिन्होंने सम्मइसुत्च (167 गा.) लिखकर प्राकृत में दार्शनिक ग्रन्थ लिखने का मार्ग प्रशस्त किया। यह ग्रन्थ तीन खण्डों में विभवत है-नय, उपयोग और अनेकान्तवाद। अभयदेव ने इस पर 25000 श्लोक प्रमाण तत्वबोध-विद्यायिनी नामक टीका लिखी। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इसी प्रकार प्राचार्य देवसेन का लघुनय चक्र (81 गा.) और माइल घक्ल का वृहन्नयचक्र (423 गा.) भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। किसी अज्ञात कवि का जीवसमास (286 गा.); शान्तिसूरि (11वीं शती) का जीवविवार (51 गा.), अभयदेवसूरि की पण्णवणा-तइयपयसंगहणी (133 गा.), अज्ञातकवि की जीवाजीवाभिगमसंगहणी (223 गा.), जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का समयखित्तसमास (637 गा.), रत्नशेखरसूरि की क्षेत्रविचारणा (377 गा.), नेमिचन्द्रसूरि का पवयणसारुखार (1599 गा.); सोमतिलकसूरि (वि. सं. 1373) का सतरिसयठाण पयरण (359 गा.); देवसूरि का जीवाणुसासण (323 गा.) आदि रचनाओं में सप्त तत्वों का सांगोपांग विवेचन मिलता है। धर्मोपदेशात्मक साहित्य भी प्राकत में प्रचर मात्रा में मिलता है। जीवन-साधना की दृष्टि से यह साहित्य लिखा गया है । धर्मदास गणि (लगभग 8 वीं शती) की उवएसमाला(542 गा.), हरिभद्रसूरि का उवएसपद ( 1039 गा.) एवं संबोहपयरण (150 गा.),हेमचन्द्र सूरि की पुष्पमाला (50 5 गा.) व भवभावणा (531 गा.), महेन्द्रप्रभूसूरि (सं. 1436) की उवएस चितामणि (415 गा.), जिनदत्तसूरि (1231) का विवेकविलास (1323 गा.); शुभवर्धनगणि (सं. 1552) की वद्धमाणदेसना (3163गा.), लक्ष्मीवल्लभगणि का वैराग्यरसायनप्रकरण (102 गा.); पद्मनन्दमुनि का धम्मरसायण (193 गा.) तथा जयवल्लभ का वज्जालग्ग (1330 गा.) भादि ग्रन्थ मुख्य हैं। इन कृतियों में जैनधर्म, सिद्धांत और तत्वों का उपदेश दिया गया है और आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से व्रतादि का महत्व बताया गया है । ये सभी कृतियां जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई हैं और पश्चिम के जैन साहित्यकारों ने अर्धमागधो के बाद इसी भाषा को माध्यम बनाया । 'यश्रुति' इसकी विशषता है । प्राचार्यों ने योग और बारह भावनाओं सम्बन्धी साहित्य भी प्राकृत में लिखा है। इसका अधिकांश साहित्य यद्यपि संस्कृत में मिलता है पर प्राकृत भी उससे अछता नहीं रहा। हरिभद्र सूरि का झाणज्झयण (106 गा.), कुमार कार्तिकेय का बारसानुवेक्खा (489गा.), ड देवचन्द्र का गुणट्ठाणसय (107 गा.) उल्लेखनीय है । इन ग्रन्थों में यम, नियम आदि क माध्यम से मुक्तिमार्ग-प्राप्ति को निर्दिष्ट किया गया है । प्राचीन भारतीय योगसाधना को किस प्रकार विशुद्ध प्राध्यात्मिक साधना का माध्यम बनाया जा सकता है इसका निदर्शन इन प्राचार्यों ने इन कृतियों में बड़ी सफलतापूर्वक किया है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy