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________________ महाबन्ध (सात अधिकार)। इनमें कर्म और उनकी विविध प्रकृतियों का विस्तृत विवेचन मिलता है । इस पर निम्नलिखित टीकायें लिखी गई हैं । इन टीकात्रों में धवला टीका को छोड़कर शेष सभी अनुपलब्ध हैं । इनकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है :-- (1) प्रथम तीन खण्डों पर कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत टीका (12000 श्लोक) प्रथम पांच खण्डों पर शास्त्रकुण्डकृत पद्धति नामक प्राकृत-संस्कृत कन्नड मिश्रित टीका (12000 श्लोक परिमाण) (3) छठे खण्ड पर तुम्बूलाचार्यकृत प्राकृत पंजिका (6000 श्लोक) (4) वीरसेन (816 ई.) की प्राकृत संस्कृत मिश्रित टीका (72000 श्लोक) दृष्टिवाद के ही ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के पेज्जदोस नामक तृतीय प्राभूत से कषायप्राभृत (कसाय पाहुड) की उत्पत्ति हई । इसे पेज्जदोसपाहुड भी कहा गया है । आचार्य गुणधर ने इसकी रचना भगवान महावीर के परिनिर्वाण के 683 वर्ष बाद की । इसमें 1600 पद, 180 किंवा 233 गाथायें और 15 अर्थाधिकार है । इस पर यति वृषभ ने विक्रम की छठी शती में छः हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्र लिखा । उस पर वीरसेन ने सन् 874 में बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी। इस अधरी टीका को उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर ग्रन्थ समाप्त किया । इनके अतिरिक्त उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणवत्ति, शामकूण्डकृत पद्धति टीका, तुम्बुलाचार्य कृत चुडामणिव्याख्या तथा बप्पदेवगुरुकृत व्याख्याप्रजप्ति वत्ति नामक टीकाओं का उल्लख मिलता है पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी टीका ग्रन्थों में कर्म की विविध व्याख्या की गई है । इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने विक्रम की 11वीं शती में गोमट्टसार की रचना की । वे चामुण्डराय के गुरु थे जिन्हें गोमट्टराय भी कहा जाता था । गोमटसार के दो भाग हैं-जीवकाण्ड733 गाथायें और कर्मकाण्ड (972 गा.) । जीवकाण्ड में जीव, स्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामी और वेदना इन पांच विषयों का विवेचन है । कर्मकाण्ड में कर्म के भेद-प्रभेदों की व्याख्या की गई है । इसी लेखक की लब्धिसार (261 गा.) नामक एक और रचना मिलती है। लगभग पाठवीं शती में लिखी किसी अज्ञात विद्वान् की पञ्चसंग्रह (1304 गा.) नामक कृति भी उपलब्ध है । इसमें कर्मस्तव आदि पांच प्रकरण है । प्रायः ये सभी ग्रन्थ शौरसैनी प्राकृत में लिखे गये हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द, वट्टकर और शिवार्य के साहित्य को इसमें और जोड दिया जाय तो यह समूचा साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय का पागम साहित्य कहा जा सकता है । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त शिवशर्मसूरि (वि. की पांचवीं शती) की कर्मप्रकृति (475 गा.); उस पर किसी अज्ञात विद्वान की सात हजार श्लोक प्रमाण चर्णि, वीरशखरविजय का ठिइबन्ध (876 गा.) तथा खवग सेढी और चन्द्रषिमहत्तर का पंचसंग्रह (1000 गा.) विशिष्ट कर्म-ग्रन्थ है । गर्षि (वि. की 1 वीं शती) का कर्मविपाक, अज्ञात कवि का कर्मस्तव और बन्धस्वामित्व, जिनवल्लभ गणि की षडशीति, शिवशर्मसरि का शतक और अज्ञात कवि की सप्ततिका ये प्राचीन षट कर्म ग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनवल्लभगणि (वि.की 12वीं ( शती) का सार्धशतक (155 गा.) भी स्मरणीय है। देवेन्द्रसूरि ( 13वीं शती) के कर्मविपाक 60 गा.), कर्मस्तव ( 3 4 गा.), बन्धस्वामित्व ( 24 गा.), षडशीति ( 86 गा.) और शतक 100 गा.), इन पांच ग्रन्थों को व्यकर्मग्रन्थ कहा जाता है । जिनभद्रगणि की विशेषणवति...
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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